Monday, 27 November 2017

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे
न्यायधीश मरे
न्यायालय लेकिन मौन ।
इतने सर हैं , इतने बाजू
देखो लेकिन
बोले, कितने - कौन ?
सत्ता की कुंडी खड़काने
आये जो दो - चार
सजा देखकर हुए दंग ये
रास - रंग दरबार ।
राजा जी के सर पर देखा
रत्न जटित एक ताज
राज्यासन पर शोभित देखा
राजा जी को आज ।
प्रहरी चारों ओर खड़े थे
लेकर के बंदूक
कोष लूटाने को दरबारी
खोल खड़े संदूक ।
कुंडी तो अब खड़क चुकी थी
पहुंच गई आवाज
राजा जी ने फ़ट से पूछा
अब क्या है नासाज़ ?
मंत्री बोले -
अभय रहे साम्राज्य सदा
कहता सत्ताधीश !
ये आवाज़ें बेमानी हैं
ये बिगड़े कलमनवीस ।
भ्रू इंगित पर सालों पहले
शासन का जो न्याय
मांगे आज समीक्षा उसकी
कहते - 'था अन्याय' !
राजा जी ने कहा गर्व से
होकर के गंभीर
निर्वाचन से शासन चलता
यह निर्वासन की पीर ।
आया है माकूल समय
अब करें धर्म आराधन
आज नहीं तो कब उपयोगी
सत्ता के संसाधन ?
रौनक वापस फिर से आई
सत्ता के दरबार में
कुंडी लेकिन खड़क रही है
घर - घर में , बाजार में ।

करूणेश
पटना
27 । 11 । 2017








Saturday, 18 November 2017

स्पर्धा बनाम तुलना (Competition v/s Comparison)

जमाना आजकल कॉम्पिटिटिव हो गया है। कॉम्पिटिटिव यानि स्पर्धात्मक। कम्पटीशन बहुत बढ़ गया है। ऐसी बातें हम रोज ही बोलते - सुनते हैं। विशेषकर अपनी अनुगामी पीढ़ी को। मुझे ऐसा लगता है कि स्पर्धा उतनी नहीं बढ़ी जितनी तुलना। हम लोग स्पर्धात्मक से अधिक तुलनात्मक हो गए हैं।

स्पर्धा है क्या पहले इसे स्पष्ट करना मैं जरूरी समझता हूँ। जहाँ तक मेरी समझ है स्पर्धा वह भावना है जो हमें अपने लक्ष्यों को पाने की चुनौती देती है। यह किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह और उसकी क्रियाओं को लक्ष्य केंद्रित करने का चुनौती पूर्ण  भाव पैदा करती है। चुनौती ही स्पर्धा का भाव पैदा करती है और इसीलिए चुनौती ही स्पर्धा का कारक भी। स्पर्धा मानवीय सीमाओं और संभावनाओं  का विस्तार करती है चुनौतियों के माध्यम से।चुनौतियाँ मनुष्य के सामने समस्यायों के रूप में होती है और लक्ष्य समाधान बन कर आता है। समाधानों की भी सीमाएं होती है और फिर इन्ही सीमाओं के विस्तार की चुनौती मनुष्य और उसके समाज को लगातार मिलती है जो स्पर्धा को जन्म देती है। शायद यही कारण है कि स्पर्धा खेल की समानार्थी बन जाती है। स्पर्धा सदैव मनुष्यों या मानव समूहों यथा समाज, राष्ट्र, दल के बीच हो सकती है , वस्तुओं या स्थितियों के बीच नहीं। 

तुलना तौलने शब्द से बनता है जिससे किसी वस्तु का परिमाण या मात्रा ज्ञात की जाती है। तुलने की क्रिया में चार चीजों  का होना अनिवार्य है। एक तुला दूसरा तौलने वाला तीसरी वह वस्तु  जिसे तौला जाना है और चौथा वह समरूपता जससे तुल्य वस्तु तौली जा सके। स्पर्धा से अलग तुलना व्यक्ति वस्तु और स्थिति किसी के बीच की जा सकती है। सामानयतः तुलना का उद्देश्य एक की खामी के सामने दूसरे की खूबी उजागर करना होता है यद्यपि ऐसा करना उद्देश्य न भी हो मगर तुलना की क्रिया में ही यह अंतर्निहित होता है। तुलना अतीत और वर्तमान के बारे में भी की जाती है और वर्तमान के उपमानों के बीच भी। तुलना का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि कभी - कभी यह भविष्य का संकेत करती है। मगर अधिकतर तुलनाएं बौद्धिक मनोरंजन मात्र ही होती हैं विशेषकर तब जब वह अतीत और वर्तमान की आधारभूमि पर की जातीं हैं विशेष रूप से व्यक्तियों और स्थितियों के संदर्भ में। सामान्यतः तुलना के निष्कर्ष तुलना करने वाले के पहले से सोचे हुए परिणामो  की तार्किक व्याख्या मात्र होती है। वस्तुओं के बीच की जाने वाली तुलना उनकी उपयोगिता एवं धारक के आर्थिक स्तर के उद्घोष के लिए होती हैं ।

अपने दैनिक सामाजिक जीवन मे मेरा स्वयं का यह अनुभव है कि हम बात तो करते हैं स्पर्धा यानि कम्पटीशन की लेकिन जैसे ही हम अपनी बातों को विस्तार देते हैं हम जाने अनजाने तुलना करने लगते हैं। चूंकि वास्तव में तुलना करना ही हमारा उद्देश्य होता है अतः इस क्रिया का स्वाभाविक अंतर्निहित गुण प्रदर्शित होने लगता है यानि किसी एक के पक्ष या विपक्ष में होना। अनेकानेक अवसरों पर मैंने यह पाया है कि यह निंदा का रूप ले लेती है और दूसरे पक्ष में ईर्ष्या का भाव पैदा करती है या इसका उल्टा। शायद यह कहने की आवश्यकता नहीं कि संघर्ष की भूमि का निर्माण हम रोज ब रोज करते हैं इस प्रक्रिया से गुजरते हुए लेकिन इसे स्वीकार नहीं करते हैं।समाजिक समरसता का भाव इस से बहुत तेजी से टूटता है।

स्पर्धा मनुष्य को मनुष्येतर बेशक न बनाये इसे बेहतर तो अवश्य ही बनाती है। स्पर्धाएं  निश्चित रूप से प्रयासों का महत्व स्थापित करती हैं जबकि तुलनाएं सफलताओं और असफलताओं का एक साथ प्रतिपादन मात्र करती हैं।

बौद्धिक विमर्शों और विवेचनाओं की आधारभूमि के लिए तुलनाएं आवश्यक हैं और कई बार तो ऐसी तुलनाएं मानव समूहों में स्पर्धा का भाव जगाने में उत्प्रेरक का काम करती हैं लेकिन क्या इसकी ओट लेकर खंडन , मंडन और मर्दन करने के लिए तुलना करने की उग्र व्यग्रता और अपने जीवन व्यवहार में तुलना करने की अतिरेकी अधिकता अनिवार्य है।लोकतंत्र के चौथे खम्भे के तौर पर मीडिया चाहे वह प्रिंट हो , टी वी हो , वेब पोर्टल हों या सोशल मीडिया हर जगह तुलनाओं के आधार पर धारणाओं को स्थापित करने का आक्रामक प्रयास होता दिख रहा है। आश्चर्य और दुःख इस बात का है कि तथाकथित बौद्धिक समाज ही इसका नियंता , उपयोगकर्ता और भोक्ता तीनों बन बैठा है। 

शायद समाज आज बहुत बेचैन (Restless) है। बाजार द्वारा प्रतिपादित 'न्यूनतम में अधिकतम' के सिद्धांत ने प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया है। अधिक रौशनी के लिए घर के दिए से दूसरों  के घर जलाने की मनोवृति हमें अधिक से अधिक तुलनात्मक होने के लिए बेचैन करती है। तुलनाओं के इस बियाबान में हम खो से गए हैं अँधेरे और अकेलेपन के सहयात्री बन कर। 

सोच कर देखिये।बस इस लेख की तुलना मत कीजियेगा किसी को कमतर साबित करने के लिए।

करुणेश 
पटना 
१८। ११। २०१७ 



Tuesday, 14 November 2017

जवाहर लाल नेहरू

आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू की जन्म तिथि है। उनके जीवन से सम्बंधित दो  घटनाएं याद आ रहीं हैं जिनका उल्लेख ही मेरे आज के  ब्लॉग का विषय है। लेकिन पहले  यह स्पस्ट कर दूँ कि मैं किसी भी रूप में कांग्रेसी नहीं हूँ और न ही मैं किसी और राजनितिक दल का शुभचिंतक / समर्थक हूँ। अब आता हूँ उन दो घटनाओं पर जिनका उल्लेख मैं यहाँ करना चाहता हूँ क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि घटनाएं आज के समय - सन्दर्भ में समीचीन भी हैं और  महत्त्वपूर्ण भी। 

यह भी बताना जरूरी है कि  दोनों घटनाओं का स्रोत  अखबारी - इंटरनेटी पाठन ही है।

पहली घटना का सम्बन्ध  डॉक्टर राम मनोहर लोहिया  से है। आजादी के  कुछ ही साल बीते थे। यू पी के किसी गाँव में डॉक्टर लोहिया को किसी अनपढ़ महिला ने पूछा कि  देश की आजादी से हम गरीबों को क्या हासिल हुआ। लोहिया का जबाब था -  यह सवाल तुम्हे भारत के प्रधानमंत्री नेहरू से करना चाहिए क्योंकि मैं भी उनसे यही सवाल पूछ रहा हूँ। महिला ने पूछा  - नेहरू कहाँ  रहते हैं। लोहिया का जबाब था - दिल्ली , प्रधानमंत्री निवास।आगे लोहिया ने महिला से कहा कि अगर तुम अपना सवाल पूछने दिल्ली जाना तो नेहरू का कलर पकड़कर यह सवाल पूछना क्योंकि तुमने उन्हें वोट दिया है।   महिला पहुँच गयी दिल्ली , प्रधानमंत्री निवास  सुबह सवेरे। प्रधानमंत्री नेहरू अपने निवास से निकल ही रहे थे। महिला ने ठीक वैसे ही सवाल पूछा  जैसे लोहिया ने कहा था (शायद आज यह बात काल्पनिक लगे मगर तब भारत का प्रधानमंत्री इतना ही सहज /सुलभ था) . प्रधानमंत्री नेहरू का उस महिला को जवाब था - आजादी से तुम्हे यह मिला कि तुम अपने प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर यह पूछ सकती हो। 

दूसरी घटना कार्टूनिस्ट शंकर से सम्बंधित है। शंकर ने अपने एक कार्टून में प्रधानमंत्री नेहरू की  तस्वीर एक गधे के रूपाकार जैसी बनायी थी। अगले दिन कार्टूनिस्ट शंकर को प्रधानमंत्री के सचिव का फ़ोन आया और उनसे पूछा गया - प्रधानमंत्री यह जानना चाहते हैं  कि  क्या शंकर एक  गधे के साथ चाय पीना  पसंद करेंगे। 

नेहरू का जन्म दिवस एक प्रश्न बन कर खड़ा है मेरे सामने -  क्या हमें आजादी मिली ? क्या अभिव्यक्ति के  माध्यमों और अभिव्यक्ति के सृजनकर्ताओं को आजादी मिली ? 

करुणेश 
पटना 
१४।  ११।  २०१७ 

Thursday, 2 November 2017

कांपती लौ

मन पिछले कुछ दिनों से भटक ज्यादा रहा है और अटक कम रहा है। जब तक यह अटके नहीं किसी विचार पर या घटना पर लिखना संभव नहीं हो पाता है। कुछ मायने में आज मैं मन को अटकाने की कोशिश कर रहा हूँ ताकि लिख सकूं कुछ सार्थक , कुछ वैसा जिसे लिख कर मेरे मन का भटकाव कुछ कम हो।

राजनीति , समाज और अन्य बहु चर्चित मुद्दों पर लिखने का मन नहीं है। कारण सिर्फ एक। इन मुद्दों पर जो भी लिखा कहा जाय वह तथ्यों और तर्कों का दुहराव भर होता है। हाँ प्रस्तुतिकरण का तरीका जरूर इन मुद्दों को रोचक बना देता है।लेकिन बगैर राजनीति और समाज के आयामों के उल्लेख के प्रासंगिक और तर्कपूर्ण कुछ कहना भी तो कठिन।

कभी कभी मुझे लगता है मैं दुखी हूँ , कुछ हद तक आक्रोशित भी। अक्सर मुझे वर्तमान परिदृश्य नैराश्य से भर देता है। किन्तु अति निराशा ही आशा की आधारभूमि भी होती है। इसलिए बात की शुरुआत करते हैं योगेंद्र यादव के किसान आंदोलन से और दिल्ली के मोहल्ला क्लिनिक एवं सरकारी विद्यालयी व्यवस्था से।ये दोनों मुझे आशा दीप से लगते हैं , मगर कब तक जलेंगे और इनकी रौशनी कितना  विस्तार पायेगी यह भविष्य के गर्भ में है।

अब इसी आशा दीप  के साथ अपनी बात रखता हूँ। हमारे घर में जब एक शिशु का जन्म होता है तो पूरे परिवार को बस एक ही चिंता होती है। शिशु के स्वस्थ्य की। माँ के लिए तो इस से बड़ा कोई प्रश्न ही नहीं होता। शिक्षित अशिक्षित के भेद के बगैर एक शिशु को  स्वस्थ जीवन देने का महत्व सबको ज्ञात है। सबको यह पता होता है कि किसी भी शिशु का भविष्य शिशु के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। इतना ही नहीं प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक उपादेयता मूलतः उसके बचपन के स्वास्थ्य पर काफी हद तक निर्भर करती है। इस दिशा में में आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार द्वारा संचालित मोहल्ला क्लिनिक एक सार्थक एवं दूरगामी प्रभाव देने वाला कदम है। यद्यपि यह कुपोषण की  समस्या का समाधान नहीं हो सकता। किन्तु एक मौलिक और बहु उपयोगी प्रयास तो है ही। 

कुपोषण का  सम्बन्ध आर्थिक रूप से विपन्न सामाजिक  वर्ग से है जिसमे से अधिकांश देश का ग्रामीण कृषक है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि उत्पादन या कृषि व्यवसाय से जुड़ा है। शहरों में रहने वाला विपन्न सामाजिक वर्ग भी इन्ही वर्ग समूहों के लिए पूरक आर्थिक संसाधन के निर्माण में कार्यरत होता है यद्यपि अन्य क्षेत्रों में जो कृषि से किसी भी तरीके नहीं जुड़े होते हैं। तो दिल्ली की आम आदमी पार्टी की  सरकार  का मोहल्ला क्लिनिक और योगेंद्र यादव का किसान आंदोलन मुझे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु लगते हैं। काश मोहल्ला क्लिनिक भारत के सारे  टोलों - मोहल्लों तक पहुँच जाए और किसान आंदोलन अपनी तार्किक परिणति को प्राप्त कर ले तो भारत को शायद वर्ल्ड बैंक , आई एम् ऍफ़ और विभिन्न वैश्विक रेटिंग एजेंसियों के अनुमोदन की आवश्यकता  समाप्त हो जाए कम से कम नागरिकों की अनिवर्य जीवन जरूरतों  के सन्दर्भ में । इस का एक बाई प्रोडक्ट होगा पर्यावरणीय संतुलन जो  वैश्विक समस्या  बन चुकी है। हो सकता है मेरी सोच अति सरलीकृत हो और इसे कार्य रूप देना  संश्लिष्ट लेकिन भारतीय राजनीति को इसे एक चुनौती के रूप  स्वीकार करना ही होगा। यहाँ तक कहूंगा कि भारत के भविष्य की यह एक अनिवार्य और पहली शर्त है , दूसरी तीसरी और चौथी या अन्य चाहे और कुछ। 

आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने एक पहल और की है सरकारी विद्यालयों के स्तर  को सुधारने  के लिए। विद्यालयी शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण सुधार के बगैर उच्च शिक्षा में  चमत्कार की अपेक्षा रखना मूर्खतापूर्ण दिवा स्वप्न  मात्र है। किसी सरकार को इसकी सुध तो आई। वरना विद्यालयी शिक्षा में  सुधार का  मतलब  तो राज्य सरकारों की लूट खसोटी योजनाएं ही रही हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि दक्षिण भारतीय राज्य विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता के मामले में उत्तर भारत के राज्यों से कोसों आगे हैं। इसका कारण भी है। याद करें साठ  का दशक जब कामराज ने तमिलनाडु में विद्यालयी शिक्षा और उसकी जीवन में उपयोगिता के महत्व  को ध्यान में रखते हुए मिड डे मील जैसी योजना प्रारम्भ की थी। एक बात और विद्यालयी शिक्षा की संरचना तब तक ठोस रूप नहीं लेगी जब तक उसमे स्थानीय जन भागीदारी न हो। मैं अपने बचपन में अपने शिक्षक से इसलिए भी डरता था कि मेरे शिक्षक मेरे पिता को जानते थे और वे मेरी विफलताएं उन्हें बताते थे। आज के पैरेंट टीचर मीटिंग के ठीक उलट कभी भी मेरे पिता मेरे शिक्षक से मेरे बारे में पूछ सकते थे और वे मेरे बारे में मेरे पिता को बता सकते थे। इतना ही नहीं अपनी अकादमिक समस्याओं के समाधान के लिए मैं कभी भी अपने शिक्षक की सहायता प्राप्त कर सकता था। और ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही कोई अपवाद स्वरुप नहीं था। स्थानीयता के प्रति शिक्षकों की ये जिम्मेदारी होती थी। मुचकुन्द दुबे की कॉमन स्कूल सिस्टम वाली रिपोर्ट में भी इस बात की ओर इशारा किया गया है। सच कहें तो बगैर स्थानीय भागीदारी के विद्यालयी शिक्षा ठोस धरातल नहीं पा सकती है और बगैर विद्यालयी शिक्षा के उच्च और उच्चतर  शिक्षा  की बात पूरी तरह बेमानी। शोध और अनुसंधान  आदि की बातें आज तो दूर की कौड़ी ही हैं। 

वर्तमान राजनीति हर काम वैश्विक स्तर का करना चाहती है या फिर सबसे श्रेष्ठ और सबसे अच्छा। यह वो नहीं करना चाहती जिसे आज के भारत को सर्वाधिक आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य , कृषि और किसान ये सारी  बातें इन्हे हाशिये का किस्सा (Foot Note) सी लगती हैं। आखिर बड़े साहब लोग जो ठहरे आवेदन कुछ भी हो समाधान तो हाशिये पर ही जगह पाता है। भारतीय राजनीति यह समझ ले कि चुनाव जीत कर " हड़बड़ी के बियाह आ कनपटी पर सेनुर " वाली कहावत जनता अधिक दिन नहीं झेल सकती। 

करुणेश 
०२। ११। २०१७ 
पटना 

Thursday, 12 October 2017

गाँधी , शास्त्री , लोहिया और जे पी - मेरे लिए

कल  जय प्रकाश नारायण की जन्म तिथि थी । आज राम मनोहर लोहिया की पुन्य तिथि। और इसी अक्टूबर में २ तारीख को महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जन्म तिथि।  अख़बार , टीवी और वेब पोर्टल से कुछ हटकर एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर इन्हे जैसा जाना समझा है वही साझा कर रहा हूँ। 

महात्मा गाँधी , शास्त्री और लोहिया को मैंने देखा नहीं है। उनके जीवन और कर्म के बारे में मेरा ज्ञान किताबी और अखबारी ही रहा है। 

जय प्रकाश नारायण यानि जे पी को मैंने देखा है। मुझे इनके होने की अनुभूति भी हुई है। पहली और आखिरी बार मैंने जे पी को श्री कृष्णा मेमोरियल हॉल पटना में देखा जहाँ उनका शव अंतिम दर्शनों के लिए रखा हुआ था। लेकिन जे पी की धमक हमारे घर में संपूर्ण क्रांति के आंदोलन और इमरजेंसी के  दौरान हो चुकी थी क्योंकि मेरे बड़े भाई श्री अमरेश नंदन सिन्हा इस ऐतिहासिक घटना क्रम के सक्रिय भागीदार भी रहे और इसी दौरान उनका जेल प्रवास भी हुआ। बाबूजी का नैतिक और मौन समर्थन आज भी याद आता है। यह तो हुई व्यक्तिगत और पारिवारिक बात। 

इन चारों  के बारे में जितना मैंने जाना है उस से मेरे अंदर विस्मय का बोध होता है। कुछ कुछ वैसा जिसे अंग्रेजी में Awe & Wonder कहते हैं। विशेषकर आज के सन्दर्भ में। अज्ञेय ने कहा था - दुःख मांजता है। यह कथन इन चारों पर पूरी तरह चरितार्थ होता है। लेकिन मेरे विस्मय बोध का कारण यह नहीं है। सामान्य जीवन में दुःख की जो अवधारणा है ये चारों व्यक्तिगत रूप से उस से पार पा चुके थे। लेकिन जीवन में व्यक्तिगत सुख खोजने की जगह इन्होने जन जीवन का दुःख आत्मसात कर लिया था। दूसरों का दुःख आत्मसात करने का उनका  तर्क चाहे जो भी रहा हो लेकिन मेरे जैसे आम इंसान के लिए तो एक अजूबा ही है। क्रांति सदैव हुंकार ही नहीं भरती बल्कि  वह उद्दात्त -चित्त , उदार, गरिमामयी, करुणापूर्ण और गंभीर भी होती है। 

गाँधी अपने जिस गुण के कारण मुझमे विस्मय बोध कराते  हैं वह है साधन और साध्य की शुचिता पर जोर। साध्य के शुचिता की अवधारणा एक राजनितिक दर्शन  रूप में भारत में आज भी शैशव अवस्था में ही है। इसका मुख्य कारण व्यवस्था में बड़ी हिस्सेदारी रखने की इच्छा है।सफल होने की हड़बड़ी और तात्कालिकता के महत्व ने साधन की शुचिता के महत्व को न सिर्फ राष्ट्रीय जीवन से बल्कि दैनिक जीवन से भी लगभग गौण कर दिया है। 

कहते हैं सत्ता मद मस्त करती है और सम्पूर्ण सत्ता पूर्ण रूप से मद मस्त। लाल बहादुर शास्त्री ने इस कथन को पूरी तरह गलत साबित कर दिखाया। १९६५ के युद्ध में भारत की विजय ने न सिर्फ १९६२ की हार के दाग को धोया बल्कि १९७१ के जीत की नीवं भी रख दी। भारत को आर्थिक आत्मनिर्भरता की प्रेरणा शास्त्री जी के जय किसान से ही मिली थी। सत्ता के शिखर की यह विनम्रता विस्मय बोध कराने के लिए पर्याप्त है। 

लोहिया एक प्रबुद्ध और प्रखर सोच वाले ठेठ देहाती। दिमागों के शहरीकरण का जिस समय भारत में बीजारोपण हो रहा था उस समय गांव , खेत-खलिहान , फावड़ा की बात करना बड़े साहस की बात रही होगी। जब पूरा भारत नेहरू के आभामण्डल से चकित - विस्मित - विस्फरित हो रहा था उसी दौरान एक व्यक्ति देश के अनगढ़ और खुरदुरी सच्चाई को चीख चीख कर बता भी रहा था और चेतनाओं को झकझोर भी रहा था बगैर किसी व्यक्तिगत ईर्ष्या या शाब्दिक अमर्यादा और कड़वाहट के। इस तिलस्म से विस्मित हो जाना मानवीय रूप से सहज है। 

जय प्रकाश - यानि वह जिसने मानवीय अभिव्यक्ति की गरिमा स्थापित की। और वह भी जन भागीदारी के माध्यम से। एक ऐसी चेतना जो उस हर राह पर चलने के लिए सदा सहर्ष तैयार रही जो मानवीयता की गरिमा को बचा बना सके। सफलता और असफलता के प्रति निरपेक्ष भाव रखते हुए। जे पी जिन्होंने आजाद भारत को पहली बार यह बताया की सत्ता व्यवस्था का समुच्चय है अतः परिवर्तन की अपेक्षा व्यवस्था में होनी चाहिए न कि सत्ता में। 

इच्छा है कि आजीवन विस्मित रहूँ इन चार मनीषियों के विचार दर्शन से। 

करुणेश 
पटना
१२। १०।२०१७




Friday, 8 September 2017

उद्वेग का आलेख

गौरी लंकेश को मरने से पहले मैं नहीं जानता था। राम रहीम प्रकरण से पहले मैं पत्रकार छत्रपति को भी नहीं जानता था। मरने से पहले मैं दैनिक हिंदुस्तान के पटना संस्करण के पत्रकार राजदेव रंजन को भी मैं नहीं जानता था। मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले के शिकार पत्रकारों और आर टी आई कार्यकार्यताओं को भी मैंने   मरने के बाद ही जाना। इतना ही नहीं कलबुर्गी , पनसारे और दाभोलकर को मैंने उनके मरने के बाद ही जाना। इस से मुझे कमतरी का अहसास तो होता है मगर अपराध बोध नहीं। उलटे इन जैसों के बारे में जानने की भूख और भी बढ़ गयी है। 

बहु प्रचारित नक्सलों की हत्या , माओवादियों की हत्या , राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समर्थित कार्यकर्ताओं की हत्या , विभिन्न राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं की हत्या के मृतकों को भी मैं नहीं जानता हूँ। इनके बारे में भी जानने की उत्सुकता होती है मेरे अंदर मगर सच यह है कि यह उत्सुकता वैसी नहीं होती जैसी पहले पैराग्राफ में नामित व्यक्तियों के बारे में होती हैं।

मेरे मन में एक सवाल उठता है। क्या मेरी मानवीयता खंडित हो जाती है। क्या मेरी संवेदनाएं पक्षधर हो जाती है। मुझे  ऐसा नहीं लगता। यदि उपरोक्त सभी मृतकों के कार्यों और उनके द्वारा अपनाये गए साधनों की शुचिता और वैधानिकता का तार्किक और निरपेक्ष मूल्यांकन करूँ तो स्वाभाविक निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि ऐसे लोगों की हत्या जो यथार्थ की तर्कपूर्ण अभिव्यक्ति के माध्यम भर हों समाज और राष्ट्र के लिए पीड़ादायी भी है और अमूल्य क्षति भी। हमें सत्य के उस कठोर पक्ष को सुनने , कहने और लिखने को ग्रहण करने की सहिष्णुता और उदारता अपने अंदर पैदा करनी होगी। साथ साथ असत्य के शोर और धारणाओं की अवैज्ञानिक तार्किकता के तकनिकी व्यामोह से भी बचना होगा। ऐसा सभी कर सकते हैं इसकी अपेक्षा दिवा  स्वप्न मात्र है और इसी लिए उनका बचे रहना और बोलते कहते लिखते रहना  भी ज्यादा जरूरी है जो आपको मात्र शब्दों के सहारे रौशनी के दीये जलाने का काम कर रहे हैं हमारे दिमागों में।

सत्य निष्ठां और विचार निष्ठा का अंतर समझना ज्यादा जरूरी है। विचार एक समय के बाद रूढ़ हो जाते हैं। सत्य अपने आप को बदलती परिस्थितियों और समय में विरोधाभासी विचारों में स्थापित कर लेता है। आप कृष्ण कथा पढ़ें या राम कथा , बुद्ध कथा पढ़ें या महावीर कथा एक ही बात स्थापित होती है सत्य समय सापेक्ष होता है और विचार व्यक्ति सापेक्ष। किसी भी तर्क से समय की महत्ता व्यक्ति से अधिक होती है इसलिए सत्य को प्रकट होने दें क्योंकि यह समय सिद्ध है। इसे रोकना समय को रोकना होगा जो किसी मनुष्य , सरकार , समाज या राष्ट्र के वश की बात नहीं।

और अंत में मेरी वर्तमान परिस्थितियों पर लिखी कविता

शुक्रिया मेरे कातिल 
सौ बार शुक्रिया 
मेरे सच के सबूत तुम 
सौ बार शुक्रिया। 

मेरी कब्र के अँधेरे 
इतने भी नहीं गहरे 
मेरे चारों तरफ है 
रौशनी के पहरे। 

अफ़सोस बस है इतना 
मारा क्यों गोलियों से ?
लफ्जों की मुफलिसी से ,
मुर्दों की टोलियों से ?

कुछ ऐसा तुम भी करते 
कुछ ऐसा तुम भी कहते 
न मैं रौशनी में मरती 
न तुम अंधेरों में रहते। 

सच की शिकायत सच में 
की हीं कहाँ थी तुमने 
तुमको गिला यही न 
कि पूछा नहीं था तुमसे। 

सच में मुझे बताना 
सच - सच ऐ मेरे कातिल 
क्या मारने से पहले 
तुम्हारे सच ने था ये पूछा 
कि गोलियां चलें क्या ?

करुणेश  
पटना
०८। ०४। २०१७

 

Monday, 4 September 2017

एक विचार

बचपन में हमें पढ़ाई नहीं अच्छी लगती है। जवानी में हमें विवेक और विनम्रता नहीं पसंद आती। अधेड़ उम्र में हमें ज्ञान नहीं भाता। और बुढ़ापे में हमें तकनीक नहीं पसंद आती। इन चार नापसंदगियों के साथ हमारा समाज बनता है अपवादों को छोड़कर। 

आइये ठीक इसका उल्टा सोचें। बचपन को खेल पसंद है। जवानी को उत्साह और तात्कालिकता। अधेड़ उम्र को धारणाएं पसंद आती हैं। और बुढ़ापे को इतिहास। 

आज के समाज को देखकर मुझे कभी कभी ऐसा लगता है जैसे एक समाज में चार अलग अलग समाज एक साथ रह रहे हैं विचार आचार और व्यव्हार के स्तर पर। समाज के इन चार रूपों में एक अन्तर्सम्बन्ध भी है और अंतर्द्वंद्व भी। लेकिन हम में से अधिकांश पसंदगी या नापसंदगी के इन्ही पड़ावों से गुजरते हुए अपनी अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हैं। 

क्या पसंदगी - नापसंदगी के क्रम को जीवन वय के विभिन्न चरणों में उलट पुलट कर कुछ बेहतर हासिल किया जा सकता है ? या यह मात्र एक कौतुक भरा विचार है। 

शायद इस पर सोचा जा सकता है।  

करुणेश 
पटना 
०४। ०९। २०१७ 

Friday, 1 September 2017

माई

(माई की कल यानि २ सितम्बर को पुण्य तिथि पर सादर )

पूज्य माई

सादर प्रणाम 

बाबूजी के चिट्ठी लिखले रहीं। ओकरा से तोरा सबके समाचार मिलिए गईल होई। वैसे सबके हाल ठीक बा। अउर चाल त तू सबके जानते बाड़ू त हम का लिखीं।

तोरा गइला से दू गो बात के तकलीफ हो गईल। अइसन हमरा लागेला। अउर लोग के नइखी जानत। ए गो जीभ के स्वाद आ दूसर बतकूचन। बाबूजी त सुनते ना रहन। आ जादे कह द त अल्लड़ - बल्लड़ कह देत रहन ओकरा के। 

ई बात नइखे कि अब खाना में स्वाद न मिले लेकिन बने से पाहिले एके तकारी के कतना तरीका से बनावल जा सकेला एकर कहानी कहे वाला अब कोई नइखे आ ना कोई के मन लागे ई सब कहे सुने में। मीट मछरी बनावे के तौर तरीका आउर ओकर किस्सा कहानी त तोरे साथे गुजर गईल। 

जउन  दोसर बात जेकर कमी हमरा खलेला उ बा गलत कहे आ करे के आजादी। अब त भाइयो बहिन में कुछ गलत कह सुन देता त रिश्ते ख़तम हो जाये के डर लागल रहेला। भौजाई आ बहनोई के बात का कहीं। तू रहिस त तोरा से कुछो कह सकत रहे आदमी। गलती करे के भी हिम्मत रहे आ गलती कहे के भी। जानते रहे आदमी कि कुछो क के तू सब संभार लेबे। और संभार लेते रहे तू। खाली हमरे खाती न कोई खाती। तोरा खातिर गलती सही से जादे जरूरी रहे सबके एके साथे रखल। तबे त आज तक निभता कम बेस कर के। आ आगे भी निभिये जाइ। 

ले हम त बाते फिंचे लगनी। जाए दे। तोरे से न कह तानी। आउर सब ठीके बा। 

जइसे बाबूजी भर जिंदगी गोदना गोदत (लिखत - पढ़त ) रह लन उही लच्छन हमरो ह। तू ही न कहत रहे - दर्ज़ी के बेटा जब तक जीवे तब तक सीवे।   

बाकी तोर आशीष। 

तोहार 
" कपिल मुनि "

करुणेश 
पटना 
०१। ०९ २०१७ 

Saturday, 26 August 2017

भारतीयों को शर्म नहीं आती

यह देश बेशर्म नागरिकों का देश है। ऐसा कहने में मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा। और हो भी क्यों ?

जिस देश में साठ से अधिक शिशु वहां मरते हैं जहाँ उन्हें जिंदगी देने की व्यवस्था की गयी है। पूरी राज्य व्यवस्था मौतों पर मात्र फूहड़ नौटंकी करती है चंद घंटों के लिए नहीं बल्कि दिनों तक। स्वाधीनता दिवस के अवसर पर  राष्ट्र को सम्बोधित करता प्रधानमंत्री एक लफ्ज भी शिशुओं की मौत पर नहीं बोलता। और हम भारतीय जय - जय में लगे हैं। किसी को यह नहीं सूझा  कि झंडोतोलन और राष्ट्रगीत के बाद दो मिनट का मौन ही रख ले उन शिशुओं की मौतों पर। आंसू बहाने का जिम्मा उन शिशुओं के माँ बाप तो उठाएंगे ही। हम भारत के लोग भला ऐसा क्यों करें ? हमें शर्म नहीं आती। 

सप्ताह दस दिनों के अंदर दो रेल दुर्घटनाएं होती हैं। शायद हम सोचते हैं ऐसा तो होता ही रहता है। फ़िल्मी भाषा में कहें तो " बड़े बड़े देशों में छोटी छोटी बाते होती ही रहती हैं। क्या फर्क पड़ता है। और शर्मिंदा होना वह भी ऐसी छोटी बात के लिए भला समझदारी है क्या ? प्रभु जी ने तो त्याग पत्र सौप ही दिया है। महाप्रभु की स्वीकृति का इंतजार है। और क्या कर सकते हैं बेचारे। हम क्यों शर्मिंदा हों हमारी थोड़े ही गलती है। एक दम सही। होना भी नहीं चाहिए। होना भी यही चाहिए। हमने त्यागपत्र को शर्म पत्र मान लिया है। 

एक सांस में तीन तलाक को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया। यह हिंदुत्व की जीत है। यह सरकार की जीत है। यह संघ की जीत है। इसके बाद भी जीत की मात्रा बची हो तो उन महिलाओं के दे दें जिन्होंने यह संघर्ष किया। लेकिन क्या मात्र जीत की भावनाओं के साथ जीवन जिया जा सकता है। हमें क्या ? हमने तो इस फैसले के पक्ष में सोशल मीडिया पर लाइक , ट्वीट और रीट्वीट कर ही दिया है। २०१९ के प्रजातान्त्रिक महापर्व में स्थान और समय के अनुरूप इसका कौशल के साथ उपयोग राजनीति कर ही लेगी। और हम इस या उस खेमे में होंगे अपना वोट देते हुए। एक नागरिक का वोट राजनितिक दलों की करनी का समर्थन नहीं होता। फिर भी ऐसा ही होगा। हमने आर्ष वचनों , परम्पराओं और प्रतीकों को अतार्किकता की हद तक बचाये रखने , निभाने और आगे बढ़ाने का संकल्प जो उठा रखा है। चाहे ऐसा करने में संविधान की धज्जियाँ क्यों न हो जाए। कितने भारतीयों को यह पता है कि भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक से वैज्ञानिक सोच को अपनाने और प्रचार - प्रसार करने की अपेक्षा रखता है। लेकिन संविधान की उपेक्षा शर्मिंदा होने का कोई कारण तो नहीं। 


बलात्कार , हत्या और यौन हिंसा के दोषी को  बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह कहा जाता है। कोई उसे बलात्कारी और हत्यारा कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। पूरी मीडिया बिरादरी पत्रकार स्वर्गीय छत्रपति के गुण गान करते नहीं थक रही लेकिन वैसा होने का साहस इक्का दुक्का ही कर पाते हैं। राजनीति ने मौन धारण कर रखा है। एक शहर जला। न्यायलय चीखती चिल्लाती रही। व्यवस्था का शिखंडी स्वभाव दर्शनीय रहा। अगली सुबह पचकुला के शहरवासी मॉर्निंग वाक पर भी निकले। शमसान में अर्ध रात्रि का सन्नाटा भी इतना भयावह शायद ही हो। पर सबने सोचा चलो अभी के लिए बला टली। अब २८ अगस्त को देखते हैं क्या होता है। हम मान चुके हैं कि ऐसा ही होगा। सामूहिक बेशर्मी का ऐस उदाहरण भला कहाँ मिलेगा। 

 भारतीय राजनीति का प्रतिपक्ष साझी विरासत बचाने की बात कर रहा है। और वह भी ऊंघते हुए अनमने ढंग से। क्या गलत है इसमें। ऊंघते अनमने नागरिकों वाले भारत को चाहिए भी यही। एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले देश को शायद सब कुछ मिल जाए पर मिलेगा शर्म खोकर ही। 

इसलिए भारतीयों को शर्म नहीं आती। जरूर दो चार लाख लोग इस श्रेणी में नहीं आते लेकिन बेशर्मी के इस महासागर में दो चार लाख मीठी बूंदें क्या कर लेंगी सिवाय कुछ लोगों में उत्साह भरने और बाकियों में आशा जगाने के। 

करुणेश 
पटना 
२६। ०८। २०१७ 





Saturday, 29 July 2017

बदलाव

बिहार में सत्रह घण्टों के अंदर सत्ता बदल गयी। नहीं , सच ये है कि सत्ता के चेहरे बदल गए। कारण और परिस्थितियां सर्व ज्ञात हैं और परिणाम भी। 

चेहरों के इस बदलाव को मैं एक आईने की तरह देखता हूँ। इस आईने में भारतीय राजनीति का जो चित्र उभर रहा है वह बहु आयामी न होकर द्वी ध्रुवीय दिख रहा है जिसके एक सिरे पर साम्प्रदायिकता है तो दूसरे सिरे पर भ्रष्टाचार। भारतीय राजनीतिज्ञों को जनता को देने के लिए यही दो चीज़ें हैं। जनता की मजबूरी है कि इनमे से ही कोई एक चुने। यह और ज्यादा तकलीफदेह है कि जन संवाद , बौद्धिक संवाद और पत्रकारीय संवाद - ये तीनों भी द्वी ध्रुवीय हो गए हैं और इसीलिए संवादों में गरिमा , गांभीर्य और विवेक का ह्राष उत्तरोत्तर  दिख रहा है। 

भ्रष्टाचार का अर्थ मात्र आर्थिक भ्रष्टाचार नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि आर्थिक भ्रष्टाचार के कारण ही सामाजिक विषमता और विद्वेष पैदा होते हैं। सामान्यतः सारे जन असंतोष के मूल में आर्थिक भ्रष्टाचार ही होता है। सत्ता व्यक्तिगत आर्थिक भ्रष्टाचार का शमन , दमन या प्रोत्साहन मात्र ही कर सकती है। किन्तु भ्रष्टाचार जब विचार का रूप लेकर संस्था बन जाए तो जनता भ्रमित हो जाती है। हम भ्रम की ऐसी ही परिस्थितियों के साक्षी बन रहे हैं। पढ़ने , देखने और सुनने में ये विचार बड़े सम्मोहक लगते हैं और इनके सम्मोहन का जब तक एक्सपायरी डेट आता है तब तक हम इसके शिकार हो चुके होते हैं। 

सम्प्रदायिकता कोई सोच नहीं बल्कि एक व्यव्हार है। लेकिन व्यहार का अर्थ स्वाभाविक मानवीय व्यवहार नहीं। मेरी समझ में यह एक प्रतिक्रियात्मक व्यव्हार (Reactionary Behaviour) है। सामान्यतः मनुष्य दो स्तरों  पर  जीता है - पहला शरीर के स्तर पर और दूसरा विश्वास के स्तर पर। मनुष्य के विश्वास का जब उग्र एवं अपमानजनक खंडन होने लगे या अतार्किक अति महिमांडन होने लगे तो तो सम्प्रदियकता की विष - बेल  उगती है। यह विष बेल परजीवी पौधे की तरह सामाजिक संरचना के तने के  चारों ओर लिपट जाती हैं और तने  से होकर टहनियों और पत्तों में जाने वाले सहजीवन और सहकार के जीवन रस को चूसकर समाज रूपी अक्षयवट को ही सुखा डालती है।

भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता दोनों ही मारक है। अंतिम परिणाम भी दोनों का एक ही है। फिर भी हमें दोनों में से एक का चुनाव करने को बाध्य किया जा रहा है , राजनैतिक सत्ता के द्वारा और वह भी हमारे ही नाम पर यानि आम जनता के नाम पर।

हमारे विवेक के  सामने एक गंभीर चुनौती है। सदाचारी (?) साम्प्रदायिकता  और भ्रष्टाचारी धर्मनिरपेक्षता (?) के अलग अलग मकड़ जाल में हम गहरे उलझ जाएँ इस से पहले इन्हे विच्छिन्न करना अति आवश्यक है।

करुणेश
पटना
२९ ०७। २०१७ 

Saturday, 22 July 2017

आदरणीय बाबूजी

आदरणीय बाबूजी

सादर चरण स्पर्श

हम लोग यहाँ कुशल से हैं। और यही आपकी कुशलता भी है क्योंकि आपकी मान्यता भी ऐसी ही रही है। आपके सारे नाती - पोते भी सकुशल हैं और अपनी - अपनी जगह प्रगति के पथ पर हैं।

बाबूजी आपको चिट्ठी लिखने के दो कारण हैं। पहला यह कि कल आप की पुण्य तिथि है और दूसरा यह कि मन कर रहा था यूँ ही। वैसे भी आपको चिट्ठी लिखने के लिए किसी कारण के होने की जरूरत ही नहीं। थोड़ा अल्लड़ - बल्लड़ तो होगा ही। फिर भी।

हमें याद आता है गरहनी में सुबह - सुबह आपका हनुमान जी को याद करना और उन्हें हनुमान भैया कह कर सम्बोधित करना। बड़का बाबूजी के निधन के बाद आपका हनुमान जी से बना यह रिश्ता अब हममें कौतुहल भी पैदा करता है और प्रेरणा का कारण भी बनता है।

हमें छोटकी फुआ को उनकी जिंदगी भर तीज भेजना भी याद है। बगैर कुछ कहे आप सीखा गए परम्पराओं को निभाना और छोटों को प्यार करना। सच यूँ ही नहीं परम्पराएं सदियों तक निभाने के लिए होती हैं।

हमें यह भी याद आता है बेशक प्यार अपनी संतान से करना मगर प्रशंसा उन सबकी करना जिनके कार्य और उपलब्धियां प्रशंसनीय हों। हमने सीखा है आपसे विस्तार - आकाश की तरह। अच्छा है आप स्वयं आकाश हो गए। हमें उड़ने के लिए किसी दूसरे आकाश का मोहताज़ नहीं होना पड़ा।

हमने देखा है आपका बच्चा हो जाना। गरहनी में बनास नदी किनारे रहने वाले गोपाल मिश्रा की माँ के हाथों का ओंठगन जिउतिया के बाद खाना। वह भी उनकी पूरी जिंदगी तक। बाबूजी, माँ खोज लेने का  यह कौशल  हम आपसे नहीं सीख पाए इसका अफ़सोस होता है। 

हमने देखा है आपका अटल पर्वत हो जाना। १९७५  की इमरजेंसी के दिनों में घर आयी पुलिस घेरेबंदी से अपने बेटे को साहस पूर्वक गिरफ़्तारी से  बचा लेना। इतना ही नहीं आपकी स्व लिखित जीवनी में उद्धरित कई घटनाओं का आपके द्वारा सामाजिक सरोकारों के लिए दृढ़ता पूर्वक खड़े होने का सहज बयाँ हो जाना।

 धार्मिक या जातीय हुए बगैर गरहनी की जगिया , जिनती और मनकिया को बेटी का सम्बोधन दे देना। इतना ही नहीं गरजन को भी बेटा  बना लेना। आज तक इनके लिए हमारे सम्बोधन दीदी और भैया ही हैं। चाहे राज़ मिस्त्री का काम करने वाले अब्दुल हई रहे जिन्हे हम हैया भैया कहते रहे या फिर मोहन मज़दूर जो हमारे लिए मोहन भैया थे जो काम के बाद हमें मुंह से तुड़तुड़ी की आवाज़ सुनाते  थे। सहदेव का गोइठा आजीवन हमारे घर ही आना बाबूजी भला आपके बगैर कैसे होता। सच आप में कितने लोग थे हमारे साथ।

धोती , कुरता और जवाहर जैकेट पहन कर शाम में ओटा पर बैठते बाबूजी और उनके साथ बैठे हुए लोग जिनके लिए चाय बनाने की मांग का  ड्योढ़ी से होते हुए अंगना तक पहुंचने के पहले ही बढ़ते जाना।माई का यह कहते हुए झल्लाना कि  पता नहीं अब कौन इनका बेटा आ गया। चाय की हर प्याली के बाद पहले सिगरेट और फिर पान। सुबह के पनबट्टे की याद भी है जिसे बड़ी बहनें निभाती रही।

धर्मयुग , साप्ताहिक हिन्दुस्तान , दिनमान आदि पत्रिकाओं से हमारा परिचय अनायास ही हो गया था। आखिर घर में एक कमरा जो था जिसे पुस्तकालय ही तो कहते थे। अनगिनत पुस्तकों को संजो कर आपने हमें दिया था। हमी उसे संभाल नहीं पाए पूरी तरह। आपने इस पुस्तकालय का एक नाम भी दिया था - नंदन पुस्तक सदन। शायद इस नाम के जिल्द वाली कुछ पुस्तकें अब भी हों।

अपनी कविताओं के नीचे देवनागरी में आपका हस्ताक्षर आज भी हमें श्रेष्ठतम हस्ताक्षर लगता है यद्यपि अपने डॉक्टर प्रिस्क्रिप्शन पर आपके हस्ताक्षर सदैव रोमन लिपि में ही रहे। भाषा का ऐस गरिमा पूर्ण सम्मान कम देखने को मिलता है।

और बाबूजी आपको हमने देखा एक सामान्य पिता की तरह जिंदगी से जूझते हुए। बेटे बेटियों से उलाहना सुनते हुए। और फिर इन्हे ही अल्लड़ - बल्लड़ कहते हुए। नए कल की आशा में। इतना तो सीख ही लिया बाबूजी कि असली जिंदगी तो अल्लड - बल्लड़ से होते हुए ही गुजरती है लेकिन हर दिन उसे छोड़ते हुए एक नए कल की आशा के साथ।

बाबूजी सबसे छोटा  बच्चा बन  कर आपके साथ आपकी थाली से आपके हाथों से एक बार खाना चाहता हूँ। हाँ आप ठीक कहते हैं - पहले मैं बच्चा तो बनूँ। एक दिन मैं जरूर बच्चा बनूँगा और हाँ तब आपके आसमान की गोद में धमाचौकड़ी जरूर होगी चाहे इसके लिए आप कितना भी गुस्सा क्यों न हों। 

आपके सारे दुलारे 

हम सभी 

Thursday, 20 July 2017

स्लैप (SLAP)

अंग्रेजी के शब्द स्लैप का शाब्दिक अर्थ होता है चाँटा , तमाचा या थप्पड़। सामान्यतः इसका प्रयोग घरों में बच्चों पर बड़ों के द्वारा किया जाता है - पारिवारिक दंड विधान के तौर पर। पहले स्कूलों में तो यह सर्वमान्य अधिकार हुआ करता था मास्टर साहब , गुरु जी या माट साब का और इसका विरोध भी नहीं होता था। न तो माता पिता द्वारा और न ही गांव घर के बड़े बुज़ुर्गों द्वारा। कहावत ही थी - " सिखाते गुरु जी नहीं , सिखाती छड़ी है।" थप्पड़ , चाँटा या तमाचा खाने वाला भी इसे प्रसाद स्वरुप ही ग्रहण करता था बिना किसी मनो मालिन्य के। 

थप्पड़ के अभिनव प्रयोग भारतीय सिनेमा में भी बहुलता से प्रदर्शित किये गए हैं। अमरीश पुरी  अभिनीत डॉक्टर डेंग के किरदार का मशहूर डायलाग अक्सर कानों में गूंजता है - " इस थप्पड़ की गूँज बहुत दूर  तक सुनाई देगी।" खलनायकों के चेहरे पर नायिकाओं और नायक की बहनों के तमाचे एक समय में हिंदी सिनेमा के अभिन्न अंग होते थे। 

कुछ तमाचे बेआवाज होते हैं। लेकिन इनकी भयावहता भीषण होती है। गाँव में चार पांच दशक पहले तीन घटनाएं निश्चित अभिशाप मानी जाती थी। पहला लगातार बेटी का पैदा होना , दूसरा किसी को घर मकान बनाने के लिए धूर्तता पूर्ण तरीके से प्रेरित करना और तीसरा किसी का केस - मुक़दमे में फँस जाना या फँसा  देना। इनमे पहला दैवीय अभिशाप था। दूसरा गँवई राजनीति का नमूना और तीसरा सताने और बदला लेने का तरीका। 

पहले दो अभिशाप अब लुप्तप्राय से हो गए हैं। लेकिन तीसरे का प्रयोग अधिकार संपन्न प्रभु वर्ग पूरी स्वच्छंदता से करता हुआ दीखता है। विशेषकर मानहानि के सन्दर्भ में और मीडिया के ऊपर। 

"द वायर - हिंदी" पर आज ही एक लेख पढ़ा।  इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली के संपादक प्रंजॉय गुहा ठाकुरता ने इस पत्रिका के सम्पादक पद से त्यागपत्र दे दिया है और अपने परिवार के साथ समय बिताने की इच्छा प्रगट की है। जैसा कि इस लेख को पढ़ने से ज्ञात होता है कि कुछ दिन पहले ठाकुरता और उनके तीन साथी लेखकों  द्वारा अडानी पावर लिमिटेड के द्वारा एक हज़ार  करोड़ रुपये की कर चोरी और बीजेपी सरकार द्वारा अडानी समूह को पांच सौ करोड़ रुपये का लाभ पहुंचने का स्पष्ट इशारा करते हुए एक विस्तृत लेख लिखा था। इस लेख की प्रतिक्रिया स्वरुप उन्हें अडानी ग्रुप के वकीलों द्वारा कानूनी नोटिस भेज दिया गया। इतना ही नहीं पत्रिका के संचालक ट्रस्ट बोर्ड ने पत्रिका के सम्पादकीय विभाग को यह लेख हटाने के लिए भी कहा है  जिसके बाद का घटना क्रम ठाकुरता का त्यागपत्र है। उक्त लेख के सहयोगी लेखक हैं - प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर , राजनीति वैज्ञानिक राजिव भार्गव , और समाज शास्त्री दीपांकर गुप्ता। 

यह लेख पढ़ने के बाद मेरे मन में यह विचार आया कि किसी लेख का विरोध या प्रतिरोध वकीलों द्वारा भेजा गया कानूनी नोटिस कैसे हो सकता है। क्या अडानी समूह ने पत्रिका को नोटिस देने के पूर्व अपनी सफाई भेजी थी। अडानी की मान हानि हुई या मान लाभ में कमी। 

सत्ता और वित्त के दंभ और अभिमान में किये जा रहे ऐसे प्रयासों का बड़ा सटीक नाम दिया है न्यूयोर्क टाइम्स ने "स्लैप - स्ट्रेटेजिक लासुईट्स अगेंस्ट पब्लिक पार्टिसिपेशन।" एक चांटा जो बेआवाज हो और उसकी धमक उतनी जो सोचने वाले दिमागों को सुन्न कर दे। धारणा का खेल खेलने वाले तथ्यों और तर्कों की बात क्यों करें।  यह भी उनके सम्मान के खिलाफ ही है। 

आज एक लेख कल एक पत्रिका परसों अखबार और फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। देश बदल रहा है। 

करुणेश 
पटना 
२०। ०७। २०१७ 


Thursday, 13 July 2017

पिछले दिनों


पिछले काफी दिनों से कुछ लिख नहीं पाया। ऐसा नहीं कि लिखने के लिए विषयों की कमी थी। किसानों की समस्या। उनकी आत्महत्याएं। मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसानों के प्रदर्शन का प्रशासनिक दमन। बिहार की ढहती - चरमराती शिक्षा व्यस्था के नमूने के तौर पर आया इस वर्ष का मैट्रिक रिजल्ट। मैंने सोचा लिखने से पहले कुछ पढ़ा जाए इन विषयों पर। किसानों की समस्या पर स्वामीनाथन आयोग का नाम भर सुना था। नेट पर इसका सारांश पढ़ा। थोड़ा समझा। किसानों और किसानी से सम्बंधित लेख - आलेख भी नेट पर पढ़े। पर जो पढ़ सका उस से इतर और कुछ सोच नहीं पाया। यह भी मान लिया कि इस विषय पर मैं कुछ लिखने की कोशिश करूँ  इस से बेहतर है कि कुछ और पढूं , कुछ और सुनूं। इसी तरह बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर मुचकुन्द दुबे जी की अध्यक्षता वाली कॉमन स्कूल सिस्टम पर लिखी २६८ पन्नों की रपट भी पढ़ी। यह तो नहीं कह सकता कि पूरी पढ़ डाली लेकिन अधिकाँश भाग जरूर पढ़ा। अभी मेरा छोटा सा दिमाग स्वामीनाथन और मुचकुन्द दुबे की रपटों को करीने से सजा भी नहीं पाया था कि जफ़र और जुनैद की भीड़ द्वारा की गयी हत्या की खबरें मेरे चारों ओर चक्कर काटने लगीं। संवेदना के समय समाप्ति की सूचना भारत की आर्थिक आज़ादी (जी एस टी ) के उद्घोष की शंख ध्वनि में मद्धम होते - होते शून्य  में विलीन हो गयी। 

शायद इतना ही काफी न था। राष्ट्रपति के होने वाले  चुनाव के लिए राजनितिक दाँव - पेंच का अद्भुत दृश्य भी आँखों से गुजरा। दलितों का इस से ज्यादा और दलन क्या हो सकता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे औरतों पर अत्याचार करने से पहले समाज उसे देवी मान लेता है।

इतनी बातों के बीच में गोरक्षा का मुद्दा तो मैं भूल ही गया। और हाँ स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री का इजराइल दौरा भी। इजराइल ने तो एक होलोकास्ट म्यूजियम बनाया है - जर्मन लोगों द्वारा यहूदियों पर की गयी बर्बरता की याद में। यहाँ भारत में तो घर ही बदल जा रहे हैं होलोकास्ट म्यूजियम के रूप में। इन्हें देखने नेता भी आते हैं। लेकिन चूँकि भारत में हर रोज कहीं न कहीं एक होलोकास्ट म्यूजियम बन रहा है (कहीं - कहीं तो पूरा मोहल्ला या पूरा गांव ) अतः नेताओं का दौरा मात्र नवीनतम म्यूजियम का ही होता है। पुराने को समाज भी भूल जाता है और नेता भी। काश ! गोएबेल्स को आज भारत में होना चाहिए था। जिस काम में आज फेसबुक और व्हाट्सप्प के बावजूद महीनों लग जा रहे हैं वह दिनों तो क्या घंटों में कर देता। सच जब तक समझ में आएगा तब तक हिटलर और गोएबेल्स अपना काम कर चुके होंगे अपने न होने के बावजूद। फिर क्या लिखना क्या कहना क्या सुनना और क्या पढ़ना। 

पश्चिम बंगाल में इन दिनों धर्म खतरे में हैं। राज धर्म और  मानव धर्म दोनों सकते में हैं। पता नहीं कौन सा धर्म खतरे में है।अब तो इसमें वैशिवकता का पुट भी शामिल हो गया है। धर्म की आधार भूमि पर सत्ता - संघर्ष और वर्ग - संघर्ष का हिंसक रूप पूरी पैशाचिकता के साथ नृत्य करता हुआ दिख रहा है।

अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों पर आतंकवादी हमला भी हो चुका है और प्रशासनिक  चूक की बात स्पस्ट है। मगर कश्मीर घाटी की हर समस्या तो पाकिस्तान जनित है। इसलिए पाकिस्तान को गालियां बक कर हमने राष्ट्र जीवन को आगे बढ़ाने का पुनीत कार्य भी प्रारम्भ कर दिया है। घटना की भर्त्सना और कड़ी निंदा की परम्परा का भी भरपूर पालन हुआ है।

देश को इन घटनाओं के बाद सुविधाजनक ऐतिहासिक अंश बताये गए। भारतीय इतिहास की भयंकर भूलों के परिमार्जन के उन्मादी विकल्प आम लोगों को उपलब्ध कराये गए। अगली भीड़ बनाने की तैयारी पूरी हो गयी है विशेषज्ञों के द्वारा। हमारे पास दो ही विकल्प है - चाहे इस ओर या उस ओर। चाहे हम किसी भी ओर हों हमारी नियति भीड़ होना है। और भीड़ की नियति राजनीति के समुद्र में मिल जाना। हम में से हरेक निर्मल जल की एक मीठी बूँद है और साथ बहना हमारा स्वाभाव मगर राजनीति के समुद्र में मिलते ही हम में से हरेक खारे  पानी की बूँद बन जाने को अभिशप्त हो रहे हैं।

कोई तो बचाये।

करुणेश
पटना
१३। ०७। २०१७ 

Tuesday, 6 June 2017

Tasting Time,Testing Time,Interesting Time

In December 2016 , I came across a news on my TV set - "NDTV was to go off air for 24 hours". It did not happen as the 24 hour off air ban imposed by the government was not effected. The reason for this ban was said to be showing pictures of sensitive areas of Pathankot Airforce base during a debate show which was as per the government a possible security threat/leakage. It appeared in the post reports that government took a generous stand and considered the clarifications of NDTV and lifted the ban.

A few days ago a ruling party spokesperson on a live debate show accused NDTV of running an Agenda which was refuted strongly by the Anchor Ms. Nidhi Razdan and asked him to take back the words and apologise. The ruling party spokesperson refused and sounded disrupting the debate. The anchor made him off air. (As mentioned in various media reports available on web)

on 5th June 2017 NDTV co - chairperson and founder Mr. Pranay Roy's residence and other places were raided by CBI on an allegation of denting a loss of Rs. 48 Crores to ICICI Bank. NDTV showed its clarifications regarding the issue and also added in its public statement that such acts of establishment shall not make them cow down to their ethics and principles to which they stand for. Thre was a clarification from one Union Cabinet Minister denying the act of raid as intentional.

A good section of social, political and media activists criticised and condemned the CBI raid on NDTV founder and co - chairperson. As usual there were abundant support for the CBI raid in favour of the act in all possible languages(!). 

One article published on web caught my attention specifically.It said that a media house is nothing more than a "News Trader" as such it need to be viewed as routine activity of CBI as CBI and other government agencies conduct raids on any other trader viz - jewellary house , a grocery trader or any other of that structure.

For me as a conscoius viewer and reader therefore it is tasting time. The "Trader Logic" gives me the reason to say that a medical doctor is a medical trader, a lawyer is a law trader, a teacher is a education trader,a soldier is a security trader,and a politician is a power trader and so on and so forth. Within no minute the trader logic passed through my eyes it started hammering my intelect. Such Chhole - Chaat comments are really tasteworthy! Oh my God , it really brought tears in my eyes due  to its hot red chilliness and tamarind sour flavour. So friends taste it till you bear it!

Testing Time. Yes it is. It is a testing time for the reason that whether you will prefer a borrowed voice or not. It is a testing time for the reason whether you will believe what is showed or told or what you see and tell. It is a testing time for the reason whether what you want to be or what you are made to be. It is a testing time for the reason whether dissent deserves space or not. It is a testing time for the reason whether it is important good to be god or god to be good. It is testing time for the reason whether civilian killing is just or not. And it is testing time also for the reason whether important is an ask or a stoic mask. We are committed to test the test. 

It is indeed an interesting time to me. The prevailing ambience is reinventing me everyday. Thank you all participant. I am hopeful I shall reinvent myself sooner than later. Yes I will. I have to.

Tonguing the taste and testing the test shall bring to me interesting time. What about you?

Karunesh

Patna

06/06/2017

Tuesday, 30 May 2017

शिक्षा और रोजगार

सामान्यतः शिक्षा और रोजगार का अन्योनाश्रय सम्बन्ध माना जाता है। यह भी सर्वमान्य है कि शिक्षा व्यक्ति को रोजगार दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। रोजगार का सीधा सम्बन्ध उत्पादन से है। रोजगार का सम्बन्ध समाज में व्यक्ति की उपयोगिता और मूल्यवत्ता से भी है। अर्थात शिक्षा व्यक्ति को समाज में आर्थिक रूप से उपयोगी और मूल्यवान बनाती है - ऐसा कहा जा सकता है। 

सामन्यतः जब हम शिक्षा की बात करते हैं तो इसका अर्थ अकादमिक शिक्षा से ही लिया जाता है। जीवन के प्रारंभिक वर्षों से ही अकादमिक शिक्षा की शुरुआत हो जाती है जो कम से कम १५ - १७ वर्षों तक तो सामान्यतः चलती ही है। लेकिन इतने वर्षों की शिक्षा हमें आर्थिक रूप से समाज में उपयोगी नहीं बना पाती। तभी तो " कौशल विकास " जैसी योजना की जरूरत महसूस हुई। यह दुर्भाग्य और दुर्घटना दोनों ही है कि आजादी के बाद की लगभग दो पीढ़ियां इसका शिकार हुईं। इसलिए शिक्षा की दुरवस्था और घटते रोजगार के मौके की पहचान यदि राष्ट्रीय आपदा के रूप में नहीं की जा रही है तो यह देश के लिए किसी भी बड़े खतरे से बड़ा खतरा होगा जिसके परिणाम कल्पनातीत होंगे। 

अंग्रेजी में एक कहावत है "Rising tide raises all boats" जिसका हिंदी रूपांतरण होगा समुद्र में ज्वार आने पर लहरें सभी जलयानों का स्तर उठा देती हैं। इसका निहितार्थ यह भी कि ऐसा होने का कारण जलयानों की अतिरिक्त योग्यता या नाविकों की कार्यक्षमता  न होकर समुद्र में उठने वाला ज्वार है। इस उद्धरण को यहां कहने का तात्पर्य यह भी है हमें तकनीक सम्पन्नता को मानवीय विकास की सम्पूर्णता मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। इसे सिद्ध करने के लिए जटिल आंकड़ों की दुनिया में न जाकर सिर्फ यह देखने से ही पर्याप्त प्रमाण मिल जाएगा कि एकाधिक बार मौलिक आवश्यकताओं  पर किया जाने वाला व्यय सुविधा के लिए किये गए तकनिकी आवश्यकताओं के मुकाबले काफी कम होता है। राजनीति इसे ही विकास का पैमाना मानती है और अपनी उपलब्धि भी। इस विकास के दिवास्वप्न से हम सब अनेकों बार छले जाते है लेकिन यह इतना आकर्षक और सम्मोहक होता है कि इसकी कुटिलता हमें दिखाई नहीं देती। यही कारण है कि शिक्षा और रोजगार जैसे गंभीर विषय जो सदियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं या तो आंकड़ों में खो जाते हैं या अरण्य रोदन बन कर रह जाते हैं। 

औद्योगिक क्रांति के बाद वैश्विक तकनीक सम्पन्नता से पूरे विश्व में एक तकनिकी ज्वार आया है। परमाणु विज्ञानं और सूचना एवं संचार क्रांति ने इस ज्वार को अति गतिशीलता दी है और बहु आयामी भी बनाया है। इस युग ने जो सबसे बड़ी चुनौती हमारे सामने रखी है वह है बदलाव की गति (Speed of Change). गति का परिमाण आज तीव्रतम है और इसके और अधिक तीव्रतर होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

अब फिर से मूल प्रश्न पर लौटते हैं। हमने यह मान लिया कि आज की शिक्षा कौशल विकास नहीं करती। और इसीलिए यह रोजगार परक भी नहीं। साथ - साथ हमें यह भी जानना और मानना होगा कि यह शिक्षा बदलाव की गति से अपना साम्य स्थापित करने में पूरी तरह विफल है। कोई आश्चर्य नहीं कि देश का सेंसेक्स एवं जी डी पी और बेरोजगारी दोनों साथ - साथ नयी ऊचाइंयों को छू रहे हैं।

कौशल विकास के द्वारा हम रोजगार परकता यानि राष्ट्रीय उत्पादकता की वृद्धि कर तो सकते हैं लेकिन कौशल विकास कोई औद्योगिक संयंत्र लगाने जैसा काम तो है नहीं। ऐसा भी नहीं कि किसी एक सरकार  के कार्यकाल में यह कार्य पूर्ण हो सके। इसके लिए तो पीढ़ियों में और पीढ़ियों तक निरंतर बदलाव की आवश्यकता होगी उस गति के साथ जिस गति से तकनिकी बदलाव हो रहे हैं इसके आयामों की सम्पूर्णता सहित।

कम से कम राजनितिक , शैक्षणिक और सामाजिक व्यस्था इसकी निरंतरता बनाये तो रखे और इसकी गंभीरता भी। याद रखें यह एक मात्र राष्ट्रीय दायित्व है जिसके समाप्त होने की अंतिम तिथि कभी नहीं आएगी।

करुणेश
पटना
३०। ०५। २०१७   



Saturday, 27 May 2017

फेंकल (फेंका हुआ) न्यूज़

बहुत दिन पहले एक हिंदी कहानी पढ़ी थी जिसका शीर्षक था - " टेकबे त टेक ना त गो। " कहानी पढ़ने के उपरांत शीर्षक का अर्थ समझ में आया। एक सब्जी बेचने वाली स्त्री से कोई व्यक्ति सब्जी का ज्यादा  मोल - भाव कर रहा था जिस पर झुंझला कर सब्जी बेचने वाली ने जो कहा वही शीर्षक बन गया जिसका अर्थ था लेना (Take) है तो लो नहीं तो जाओ। लोक मानस द्वारा की गयी भाषा का बोली में रूपांतरण। 

आज अचानक ही यह शीर्षक याद आ गया फेक न्यूज़ के सन्दर्भ में शाब्दिक / लयात्मक साम्यता के कारण। 

कंप्यूटर से निकल कर मोबाइल में समाया हुआ सोशल मीडिया फेक न्यूज़ का सबसे बड़ा दुर्ग है। मैं फेक न्यूज़ को दो वर्गों में रखता हूँ। पहला वह जिसे निहित उद्देश्य के साथ सार्वजानिक किया जाता है। और दूसरा जिसका कोई निहित उद्देश्य तो नहीं होता लेकिन जिसे अधूरी /अधकचरी जानकारी सार्वजानिक करने की उतावली होती है। गूगल पंडित अपने यजमानों को बगैर दक्षिणा यह सुविधा मुहैया करते हैं - सर्वथा निरपेक्ष होकर। 

फेक न्यूज़ ब्रॉडकास्टर/ टेलीकास्टर और प्रमोटर / पट्रोनिज़ेर का टैग लाइन या मार्केटिंग मंत्र है -  टेकबे त टेक ना त फेंक। इसे फेंकने वाले को टेकने वाले की चिंता नहीं होती। हम जैसे अपना कचरा फेंकते हैं वैसे ही इसे भी। और थोड़े ही यह पर्यावरण को गन्दा करता है। फेंकने के कारण होने वाले मानसिक प्रदूषण के बारे में भारत में कानून असमंजस में है। बाकी शासकीय व्यस्था  तब तक इसके साथ चलने की कोशिश कर रही है ऐसा मुझे भरोसा है। 

इस लिए आप भी उतने दिनों तक इसी मन्त्र को अपनाये -  टेकबे त टेक ना त फेंक।

करुणेश 
पटना 
२७। ०५। २०१७ 


Tuesday, 16 May 2017

अंत में न्याय

अक्सर हम सुनते हैं कि अंत में न्याय की जीत हुई। आखिर में सत्य विजयी हुआ। यह वाक्य बार - बार सुनने को मिलते हैं। मेरे पास एक प्रश्न है। यदि अंत में सत्य और न्याय आते हैं तो उसके पहले क्या ? निश्चित ही वह और कुछ हो या न हो सत्य और न्याय तो नहीं ही होगा। इतना ही नहीं सत्य और न्याय शुरू में ही क्यों नहीं मिलते। क्या ये  इंतजार में बैठे रहते हैं किसी वी आई पी की तरह ताकि अन्याय और असत्य भीड़ में बैठकर तालिया बजाएं इनके लिए। न्याय और सत्य ही एकमात्र दो ऐसी चीजें हैं जिनके लिए समय का कोई मोल नहीं। 

देर लेकिन अंधेर नहीं की मानसिकता हमारे जीवन का स्थायी भाव बन गया है। 

इसे हमारी व्यवस्था का दोष कहें या मानवीय दुर्बलता। समझ में नहीं आता। व्यवस्था की बात करूँ तो मानवीय स्वाभाव का प्रश्न सर उठा लेता है और मनुष्य की दुर्बलताओं का जिक्र हो तो यह प्रश्न व्यवस्था के मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है। 

आप इस प्रश्न को कैसे देखते हैं या इसे प्रश्न मानते भी है या नहीं - मैं नहीं जानता लेकिन मेरी समझ में यह प्रश्न विवेक का है। व्यक्तिगत विवेक का भी और सामूहिक विवेक का भी। 

विवेक का शिक्षण - प्रशिक्षण और अभ्यास हमारी शिक्षा व्यवस्था का अंग ही नहीं है। न ही परिवार में , न ही समाज में न ही विद्यालयों / महाविद्यालयों में। हमने जीवन में कुछ बातें यूँ ही मान ली हैं। इनमे एक बात यह भी कि विवेक उम्र के साथ आता है जैसे शिक्षालयों में मिलने वाली डिग्री जो कोर्स पूरा होने के बाद प्राप्त होती है। मैं यह नहीं समझ पाता कि पांच साल के बच्चे से उसके उम्र के अनुरूप विवेक की उम्मीद क्यों न की जाए उसके सोच और व्यव्हार में। मैं यह भी मानने को तैयार नहीं कि पचपन साल के व्यक्ति का विवेक संतृप्त (saturated) हो जाएगा। हमें बदलने के लिए तैयार रहना होगा हर क्षण हर पल क्योंकि समय तो बदलेगा ही हम चाहें न चाहें। देर लेकिन अंधेर नहीं की मानसिकता अक्सर देर तो करती ही है अँधेरे को गहरा और अंतहीन भी कर देती है। 

विवेक की समझ हमारे अंदर वैज्ञानिक तार्किकता से आती है। चाहे व्यक्तिगत विवेक की बात हो या सामूहिक विवेक की। इसका शिक्षण - प्रशिक्षण तो परिवार से ही प्राप्त हो सकता है जिसका अभ्यास विद्यालयों / महाविद्यालयों की परिधि में हो ताकि सामूहिक विवेक समाज में अपनी सार्थक और सक्रिय भूमिका अदा कर सके। 

करुणेश 
पटना 
१६। ०५। २०१७ 

Wednesday, 10 May 2017

सखी , वे मुझसे कहकर जाते !

कल रात (आज बुद्ध पूर्णिमा है) मैंने एक सपना देखा। 

आधी रात और ब्रह्म मुहूर्त के बीच का समय था। अचानक मुझे एक बूढी आवाज अपने कानों में सुनाई पड़ी। पहले मुझे यह मच्छर की भिनभिनाहट जैसी लगी। लेकिन अर्धचेतन में भी मैं दूसरे या तीसरे बार में शब्दों को स्पस्ट समझ रहा था। अरे यह तो राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त रचित यशोधरा की एक पंक्ति थी जो मेरे कानों को सुनाई दे रही थी - " सखी , वे मुझसे कहकर जाते !" मुझे मेरे चौकने जैसा आभास हुआ। मैंने नींद में ही अपनी आँखों पर जोर दिया और अपनी पपनियों को आँखों पर से थोड़ा हटाया। मुझे मैथली शरण गुप्त दिखे। वही गांधी टोपी , थोड़ा लम्बोतरा चेहरा , चेहरे पर खीचड़ीनुमा दाढ़ी , थोड़े धंसे हुए गाल , खादी का कुरता और उसके ऊपर अण्डी , बाएं कंधे पर एक छोटा सा सफ़ेद गमछा। आधी खुली आँखों से ही मैं उनको पहचान तो गया था पर कोई और विचार मेरे मन में आता इसके पहले ही मुझे उनके पीछे गौतम बुद्ध खड़े दिखने लगे। गुप्त जी शायद अगली पंक्ति मुझे सुनाने ही वाले थे कि इसके पहले ही गौतम बुद्ध बोल पड़े। 

बुद्ध - कविवर !
गुप्त (पीछे मुड़ते हुए) - कौन ?
बुद्ध - मैं , गौतम। 
गुप्त - अरे आप तथागत। आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हो गया। कभी सोचा भी न था कि आपके दर्शन भी हो सकेंगे। 
बुद्ध - मुझसे मिलने की कभी इच्छा भी हुई क्या आपको ?
गुप्त - ऐसा न कहें भगवन। 
बुद्ध - क्यों ? आपकी भेंट अगर रामानुज लक्ष्मण से भी होती तो भी आप ऐसा ही व्यव्हार करते। 
गुप्त -  मैं कुछ समझा नहीं। 
बुद्ध - यही तो समस्या है। 
गुप्त - क्या ?
बुद्ध - नहीं समझना और क्या ?
गुप्त - पर कैसे ?
बुद्ध - समझने के लिए सम्यक विचार करना होता है। 
गुप्त - हाँ। 
बुद्ध - आपने यह किया ही नहीं। 
गुप्त - मुझे ऐसा तो नहीं लगता। लेकिन आप कहते हैं तो मान लेता हूँ। 
बुद्ध - मेरे कहने से मानने की जरूरत नहीं है। 
गुप्त - क्यों ? 
बुद्ध - अब मानने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। 
गुप्त - ज्ञान वह भी बुद्ध से, कभी भी मिले , सौभाग्य है। 
बुद्ध - तो "यशोधरा" लिखने से पहले इसका प्रयास करते। या कम से कम "उर्मिला" के बाद तो निश्चय ही करना चाहिए था। मगर सम्यक ज्ञान का सिद्धांत दांपत्य रस लेने वालों को कहाँ प्राप्त होगा। अपने दुःख की समानुभूति के लिए दूसरे के कंजुगल लाइफ को पब्लिक कर देना अनैतिक और अशोभनीय तो है ही असाहित्यिक भी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आपको ठीक ही चिरगंवार (चिरगावँ निवासी होने के कारण आपको दिया गया विशेषण ) कहा था। नागरीय जीवन पद्धति को समझना आपके वश में नहीं। 

गुप्त जी कुछ बोल पाते और मैं कम से कम दोनों के अभिवादन के लिए अपने हाथ जोड़ पाता इसके पहले  चिड़ियों की चहचहाट ने मेरा सपना ही भंग कर दिया। अब जब सपना ही टूट गया तो आगे क्या कहूँ। 

करुणेश 
पटना 
१०। ०५। २०१७ 

Thursday, 4 May 2017

दो बनाम पचीस

पाकिस्तान ने दो भारतीय सैनिकों के शवों को क्षत विक्षत किया अभी चंद रोज पहले। इस घटना के महज कुछ ही दिन पहले छत्तीसगढ़ के सुकमा में २५ सी आर पी एफ जवान  नक्सली हिंसा के शिकार हुए। इन दोनों घटनाओं पर सामन्य नागरिकों की प्रतिक्रया आश्चर्यजनक रूप से बहुत ही अलग है। जबकि परिणाम दोनों ही घटनाओं का एक जैसा रहा। यदि संख्या को आधार माने तो छत्तीसगढ़ की घटना पाकिस्तानी कुकृत्य से ज्यादा बड़ी प्रतीत होती है। लेकिन आम नागरिक इस घटना से सामन्यतः निरपेक्ष रहे जैसे कोई बड़ी सड़क या रेल दुर्घटना में २५ लोग मारे गए हों। 

हमारी मानवीय प्रतिक्रियाएं भी उत्पाद की तरह हो गयी हैं जिसे  हम उनके बिकने यानि  पढ़े - देखे - सुने - लाइक किये जाने की संभाव्यता के आधार पर अभिव्यक्त करते हैं। अभी प्रेस की आजादी के सन्दर्भ में टीवी पर किसी को यह कहते हुए सुना था कि हमने सोचने का ठेका भी औरों विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया को दे रखा है। बात मुझे तर्कपूर्ण और अर्थपूर्ण दोनों लगी। 

मुझे यह भी लगता है कि हम इकाई रूप में जितने अधिक सजग और सचेत होते हैं उतने ही कम सजग और सचेत सामाजिक सन्दर्भों में। समाज की उपयोगिता और उपादेयता का व्यवहारिक शिक्षण हमें आरंभिक दिनों में ही नहीं मिला है। परिणाम यह कि हम सार्थक सामाजिक इकाई होने की अपनी भूमिका अक्सर निभा नहीं पाते हैं। बचपन से ही हमने ऐसी आदतों का अभ्यास किया है कि बहुत बार न चाहते हुए भी हम वैसा व्यव्हार नहीं करते जैसा एक परिपक्व सामाजिक इकाई के रूप में किया जाना चाहिए। 

संचार की आधुनिक तकनीक संपन्न दुनिया के बेशक अनेकों फायदे हैं लेकिन इसने मन की निजता छीन ली है। हमारी कल्पनाओं के रूप रंग और आकार तक इनकी मात्र छायाप्रति बन कर रह गए हैं। तकनीक का उपयोग करते करते कब हम स्वयं तकनीक बन गए यह पता ही नहीं चला। अब तो हम या तो तकनीक का उपभोग करते हैं या तकनीक हमारा। तकनीक ने हमें दूसरों की दृष्टि से देखना सुनना बोलना और सोचना सिखाया है। सब एक दूसरे की छायाप्रति। नैसर्गिकता और मौलिकता तकनीक का कॉपीराइट है मेरा और आपका नहीं। 

ऐसे समय में जब अधिकांश पाकिस्तानी बर्बरता को कोस रहे हों तब भला २५ सी आर पी एफ जवानों की बात या फिर नक्सलियों की बात क्यों की जाए। शायद अधिकांश यह सोचते हैं कि छत्तीसगढ़ के मुकबले देश ज्यादा बड़ी चीज़ है। बात भी सही है। कम से कम इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के आईने में। 

करुणेश 
पटना 
०४। ०५। २०१७  

Wednesday, 3 May 2017

कब तक , किस हद तक

पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों के शवों को एक बार फिर क्षत विक्षत किया। यह कोई पहली बार नहीं है।  इसके पहले भी ऐसी घटनाएं हुई हैं। राजनैतिक प्रतिक्रियाएं भी पिछली बार की तरह ही हैं और नागरिक प्रतिक्रियाएं भी। 

प्रश्न केवल आत्म सम्मान का नहीं है। प्रश्न एकता और अखंडता का नहीं है। प्रश्न राजनैतिक इच्छाशक्ति की दुर्बलता का भी नहीं है। प्रश्न संभावित वैकल्पिक करवाई का है जिसके दो महत्वपूर्ण हिस्से हैं - कब तक और किस हद तक। 

मैं विदेश मामलों का कोई ज्ञाता नहीं हूँ और न ही मुझे  आतंरिक मामलों की विशेज्ञता हासिल है। लेकिन एक नागरिक की हैसियत से अपनी बात कहना चाहता हूँ। 

इस पूरी समस्या के तीन कोण हैं। पहला कश्मीर से १९४७ - १९९० तक  लगातार हिन्दुओं का पलायन जिसने बहु धार्मिक सामाजिक संरचना को पूरी तरह समाप्त कर दिया। दूसरा १९७१ के युद्ध के फलस्वरूप पाकिस्तान का विभाजन और पाकिस्तान के राजनैतिक जमात की विश्वसनीयता का पाकिस्तानी जनता में पूरी तरह ख़तम हो जाना। तीसरा चीन और अमेरिका की भारत विरोधी विदेश नीति और पाकिस्तान को वैश्विक , आर्थिक और सामरिक सहयोग और संरक्षण प्रदान करना। 

यह एक कड़वी सच्चाई है कि कांग्रेस और उनके नेताओं द्वारा लगातार मुस्लिम तुष्टिकरण किया गया। इसके अनेकों उदाहरण इतिहास में दर्ज़ हैं। लेकिन अब क्या हिन्दू तुष्टिकरण चला कर अतीत को सुधारा जा सकता है। समाधान समस्या का विपर्यय (Opposite) नहीं होता। सुनने में यह बात बेहद कड़वी लगे लेकिन मेरी समझ यह कहती है कि हमें कश्मीर में एक मुस्लिम भारत की सामाजिक संरचना कर देनी चाहिए राजनैतिक और सामाजिक रूप से और भारतीय संविधान के दायरे में ताकि यह मुस्लिम भारत पाकिस्तान के धर्म पोषित आतंकवाद का सामना कर सके। यानि इस्लाम बरक्स इस्लाम। मैं किसी आदर्श की बात नहीं कर रहा हूँ। हो सकता है ऐसा होने में एक पूरी पीढ़ी निकल जाए लेकिन एक राष्ट्र के सन्दर्भ में २५ - ३० साल कोई लम्बी समयावधि नहीं होती। 

पाकिस्तान के साथ आर्थिक और राजनैतिक सम्बन्ध विच्छेद कम से कम दो तीन दशकों तक। आतंरिक और बाह्य स्तर पर  राजनैतिक और आर्थिक नुकसान का जोखिम उठाते हुए अमेरिका से लालच की कूटनीति न करने का संकल्प क्योंकि चाहे कुछ भी हो अमेरिका का दक्षिण एशियाई हित पाकिस्तान की सत्ता और सैन्य व्यस्था के पोषण , संरक्षण और संवर्धन में ही निहित है। अब चीन की बात। हम एक साथ कई मोर्चों पर जोखिम नहीं उठा सकते। इसलिए यह आवश्यक है कि हमारी सामरिक तैयारी पाकिस्तान के बजाय चीन को सामने रख कर होनी चाहिए। चीन की कोशिश हमेशा ही यह होगी की युद्ध भूमि पाकिस्तान या भारत हो और चीन पाकिस्तान का मददगार। लेकिन चीन ऐसी किसी परिस्थिति में होना पसंद नहीं करेगा। परमाणु अस्त्र का भय न सिर्फ हमें होना चाहिए बल्कि उसी मात्रा में औरों को भी होना चाहिए। यह भय ही शक्ति संतुलन की तुला होगी। 

मैं नहीं जानता मेरी बात तर्कपूर्ण और व्यवहारिक है भी या नहीं। हमें यू एन सिक्योरिटी कौंसिल के मेंबरसिप को राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धि के मोह से मुक्त होने की नितांत आवश्यकता है। हमें अमेरिका से मिलने वाले वीसा का मोह भी त्यागना होगा। हम संप्रभु हैं और हम समर्थ हैं।  अपने दम पर राष्ट्र और इसके नागरिकों , सैनिकों को सम्मानपूर्ण जीवन देने में। यह निष्ठां राजनैतिक विवेक का स्थायी भाव होना चाहिए। बदलती रणनीतियां छोटी सफलताएं बेशक दिलवा दें लेकिन लम्बे काल खंड के लिए राष्ट्र को सबल नहीं बना सकती। और हाँ अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात एक राष्ट्र के रूप में संवैधानिक शीर्ष को किसी दूसरे देश की आंतरिक अशांति को वैदेशिक कूटनीति का हथियार बनाने से बचना चाहिए। 

करुणेश 
पटना
०३। ०५। २०१७  

Monday, 17 April 2017

किसकी जीत किसकी हार

आज की दुनिया में कौन जीत रहा है या किस की हार हो रही है। दो चार दस कदम के बाद सब तो हार ही जा रहे हैं। मैं कोई नकारात्मक छवि नहीं रख रहा हूँ। शान्ति बम गिराने से भी नहीं मिल रही है और आतंक फ़ैलाने से भी नहीं। मिल बैठकर बात करने की रस्म एक अंतहीन सिलसिला बन गया है। साम्यवाद , समाजवाद या पूंजीवाद या अलग अलग अंशों में मिश्रित इनका घालमेल कुछ भी तो इस दुनिया के लिए ठीक ठाक काम नहीं कर रहा। हम चाहे अनचाहे बेचैन वैश्विकता के जबरिया नागरिक बन गए हैं या बना दिए गए हैं। मुझे ऐसा लगता है जैसे बेचैनी जीत रही है और नागरिक हार रहे हैं। 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया , शीत युद्ध के बाद की दुनिया , सोवियत रिपब्लिक के विघटन के बाद की दुनिया,नेल्सन मंडेला के बाद की दुनिया या फीदेल कास्त्रो के बाद की दुनिया आखिर क्या बदला है एक सामान्य नागरिक के लिए चाहे वह किसी भी देश का क्यों न हो। नागरिकों की स्थानीयता और इसके प्रति उनका भाव बोध किसी भी राष्ट्र के लिए नीति निर्देशक के रूप में काम कर रहा है क्या , यह सवाल अलग - अलग रूपों में अलग - अलग जगहों पर बार बार सर उठा कर खड़ा होता रहा है। चाहे इराक हो ,सीरिया हो,अफ़ग़ानिस्तान हो , कश्मीर - मणिपुर - नागालैंड हो , बलूचिस्तान हो , तिब्बत हो. उत्तर कोरिया हो या फिर छोटे - छोटे अफ्रीकन महाद्वीपीय राष्ट्र हो।  

किसी नागरिक के लिए राष्ट्र कितना महत्वपूर्ण होता है। क्या राष्ट्र बोध (मैं इसे राष्ट भक्ति से अलग मानता हूँ) व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधक होता है या हो सकता है। क्या स्थानीयता का भाव बोध राष्ट्रीयता के भाव बोध का विपर्यय (Contrary) है।हाँ , नागरिकों का  राजनैतिक , भौगोलिक  और आर्थिक विस्थापन राष्ट्रीयता की भावनाओं के ह्रास और विखंडन के कारण अवश्य हो सकते हैं। अब चूँकि दुनिया तकनिकी रूप से अत्यधिक समृद्ध हो चुकी है विशेषकर सूचना और संवाद के क्षेत्र में तो वैश्विकता अब उतना बड़ा शब्द नहीं रहा जितना आज से चार या पांच दशक पहले हुआ करता था लेकिन ऐसा लगता है जैसे स्थानीयता पूरे तरीके से महत्वहीन बन गयी है और इसी लिए नागरिक भी। ऐसे महत्वहीन वैश्विक नागरिकों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। 

आईये इसी सन्दर्भ में वर्तमान वैश्विक नेतृत्व और भिन्न देशों की करनी - धरनी  का भी विहंगम अवलोकन कर लें। उत्तर कोरिया का उच्छृंखल एवं निरंकुश व्यवहार , अमेरिका की दबंगई , पाकिस्तान का दोगलापन , चीन की साम्राज्यवादी सोच और व्यवहार , अवसर की तलाश में घात लगाने को सन्नद्ध रूस , अफगानिस्तान , सीरिया , इराक और ऐसे ही न जाने कितने भू खंड जिन्हे राष्ट्र के रूप में सम्बोधन प्राप्त है में खौलता उबलता या रोता - सिसकता जन जीवन , समंदर में सीमाओं के दावे प्रतिदावे , पर्यावरण के शोधन एवं संरक्षण के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश या दोहन , यू एन ओ की अप्रभावी सक्रियता , ये सारी बाते किसी नागरिक को ध्यान में रख कर नहीं की जा रहीं हैं। यह सारा तो किसी भू खंड विशेष को समृद्ध से समृद्धतर बनाने के प्रयास भर हैं और वह भी मात्र सत्ता तंत्र के पोषण और दीर्घजीविता के लिए। 

ऐसी वैश्विक परिस्थिति में भारत में राष्ट्र भक्ति का उभार एक बेहद खतरनाक संकेत है। भारत के अस्तित्व के लिए भी और इसकी अस्मिता के लिए भी। भारत को अंधे राष्ट्रों के हाथ में दीपक देने की कोशिश नहीं करनी चाहिए वरना आग चाहे जहां लगे कम से कम उसकी आंच से हम भी झुलसेंगे। याद रखिये जल कर मर जाना उतना पीड़ा दायी नहीं होता जितना झुलस कर जिन्दा रहना।

करुणेश
पटना
१७। ०४। २०१७


Wednesday, 12 April 2017

चंपारण

साल १९१७। देश भारत। राज्य बिहार। जिला चंपारण। नील की खेती। तीनकठिया कानून। अंग्रेजी शासन। विधि की व्यस्था। विधि आधारित न्याय प्रणाली। किसानों की दुर्दशा। राज कुमार शुक्ल का बुलहटा। गाँधी का आगमन। विधि की व्याख्या। विधि की वैधता को चुनौती। तत्कालीन शासकीय एवं न्याय व्यस्था का सम्मान। किन्तु विचारों की दृढ़ता एवं अडिगता। स्थानीयता के साथ सहभागिता। अवरोध हीन  विरोध का कर्म। 

यही रहा होगा आज से सौ साल पहले जिसे आज हम चंपारण सत्याग्रह के नाम से जानते हैं। 

साल २०१७। देश भारत। राज्य कोई भी। जिला कोई भी। कैसी भी खेती। खेती - किसानी से सम्बंधित सारे कानून। संविधान का संप्रभु शासन। विधि की व्यवस्था। विधि आधारित न्याय प्रणाली। किसानों की आत्महत्या। आर टी आई एवं समाजिक कार्यकर्ताओं की कुलबुलाहट। ------------------- ?  धरना , प्रदर्शन। कर्ज माफी। सस्ते दर पर ऋंण की सुविधा के वादे। फिर कर्ज माफ़ी। स्थानीयता के साथ  सहभागिता का दिखावटी निभाव।  विधि एवं व्यस्था की अधकचरी समझ। विचारों की उग्रता। शाब्दिक उद्दंडता। दम्भी प्रतिरोध। 

फेसबुक , ट्विटर , व्हाट्सप्प , ब्लॉग पर सक्रिय हम जैसे लोग फैलते और बढ़ते चम्पारण (१९१७ वाला) के बस मूक साक्षी बनने को अभिशप्त हैं क्योंकि हमें गांधी का इंतजार है। बुलहटा भेज दिया है हम लोगों ने। देखें कब तक आते हैं गांधी हमारे पास , हमारे भीतर। 

करुणेश 
पटना 
१२। ०४। २०१७              

Tuesday, 11 April 2017

नए जवाहर

नए जवाहर आये हैं 
सबके सपनों में छाये हैं। 

छोटे - छोटे कई जवाहर 
उन से भी हैं बड़े जवाहर 
अख़बारों के पन्नों पर 
बिखरे सारे ढेर जवाहर। 

टी वी इनका 
एंकर इनके 
रूपया इनका 
सिक्के इनके 
बातें इनकी 
करनी इनकी 
ये ही केवल ,
भारत के सरमाये हैं। 
नए जवाहर आये हैं। 

डिजिटल दुनिया 
इनका कहती 
इनका सुनती 
बड़े सुहाने सपने बुनती 
सपनों में जो छेद  दिखाते 
उन पर ये हैं शोर मचाते 
चिल्ला - चिल्ली , हल्ला - गुल्ला 
गाली बकते भर भर कुल्ला 
राष्ट्रवाद में ये ही केवल ,
सारे तपे - तपाये हैं। 
नए जवाहर आये हैं। 

बात - बात में देश का रोना 
साफ़ करेंगे कोना - कोना 
पूछ रहे हैं रोज - रोज ये 
तुम तो मेरे साथ ही हो न ?
ऐसे हैं ये नए जवाहर 
अब क्या करना राम मनोहर ?

बाते करते रहे अभी तक 
गाँव गली और खेतों की 
मजदूरों और दलितों की 
पानी बानी और जवानी 
खो कर रह गए राम मनोहर। 
सोचो कैसे संसद में तुम 
आ पाओगे राम मनोहर। 

ऐसे हैं ये नए जवाहर 
कैसे हैं ये नए जवाहर। 

करुणेश 
(रचना तिथि - ०२। ०४। २०१७ )
पटना 
११। ०४। २०१७ 

Tuesday, 28 March 2017

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि

आज शाम से या कुछ लोगों के अनुसार कल से चैत्र नवरात्र का प्रारम्भ हो रहा है। हिन्दू धर्म में नवरात्र का बहुत महत्व है। एक गण्य वर्ष में दो नवरात्र प्रचलित हैं। एक चैत्र नवरात्र और दूसरा शारदीय नवरात्र। चैत्र नवरात्र की पूर्णाहुति रामनवमी को होती है और शारदीय नवरात्र की दशहरा में। नवरात्र के दौरान हिन्दू घरों में देवी दुर्गा की पूजा - आराधना होती है। 

देवी दुर्गा को समर्पित संस्कृत काव्य रचना, जिसका स्रोत मार्कण्डेय पुराण माना जाता है , उसे दुर्गा सप्तशती कहते हैं। प्रमुख रूप से इसके तीन खंड या सर्ग हैं - कवच , कीलक और अर्गला जिसका पाठन और वाचन ध्यान धारण करते हुए नवरात्र में किया जाता है। अर्गला खंड में कुल सत्ताईस द्विपदी  हैं। अर्गला खंड के सत्ताईस में से चौबीस द्विपदियों में 'रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ' की आवृति हुई है। प्रत्येक द्विपदी के पहले पद में देवी दुर्गा की शक्तियों और उनके द्वारा किये गए कार्यों का आराधन है और फिर पूजक के कामना स्वरुप इस पद की आवृति की गयी है। 

अपनी बात शुरू करने से पहले इतनी भूमिका मुझे आवश्यक लगी यद्यपि अधिकांश हिन्दू इसे जानते है विशेषकर महिलाएं। आप भी उत्सुक होंगे यह जानने के लिए कि जो बात अधिकांश को मालूम है तो यह ब्लॉग मैं लिख ही क्यों रहा हूँ। मुझे कुछ नया नहीं कहना बस आपकी याद ताज़ा करनी है। 

जिस पद को ध्यान में रखकर यह ब्लॉग लिखा जा रहा है अब उसकी बात। 

हम रूप की कामना करते हैं। हम जय की कामना करते हैं। हम यश की कामना करते हैं। करनी भी चाहिए। हम इन्हें प्राप्त करने के लिए आजीवन रत भी रहते हैं। पर जैसे ही 'द्विषो जहि ' की बात आती है हम भूल जाते हैं। द्विषो का अर्थ मेरी समझ में द्वेष , ईर्ष्या , काम और क्रोध है। हम कितनी गंभीरता से इन अवगुणों से बचने का उद्यम करते हैं। वास्तविकता तो यह भी है कि जैसे ही हमें रूप , जय और यश की प्राप्ति होती हैं 'द्विषो' हमारे अंदर उतना ही गहरा होता जाता है। जीवन के भिन्न - भिन्न क्षेत्रों में हमें रोज - ब - रोज इसका अनुभव होता है। हमें तो यह भी भान नहीं होता कि द्वेष, ईर्ष्या ,काम और क्रोध के सन्दर्भ में कब हम कारक होते हैं और कब कर्ता। करोड़ों लोग वर्षों से इसका पाठ करते हैं और आगे भी करते रहेंगे लेकिन 'द्विषो जहि ' की जगह 'द्विषो अहि ' की स्थिति से हम रोज दो - चार होते हैं। 

हम लोग जिसकी कामना करते हैं उसका अर्थ भी समझें और कम से कम उसके एकांश को कार्यान्वित करने का सत्साहस दिखाएं ऐसी मंगल कामना तो करनी ही चाहिए। कम से कम अड़तालीस बार तो जरूर एक वर्ष में। 

चैत्र नवरात्र और रामनवमी की शुभकामना। 

करुणेश 
पटना 
२८। ०३। २०१७ 

Saturday, 25 March 2017

शोर और भीड़

आंकड़ों में भारत युवाओं का देश है। सामान्यतः युवावस्था में दोस्तों की संख्या अधिक होती है। शायद ही हम किसी नौजवान को अकेला पाते हैं। अकेलापन अधिकतर प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था की संगति  है। जवानी अपने आस पास संख्या बल रखती है जो दीखता है। इसका अनुभव कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में स्वयं ही कर लेता है। संख्या बल के माध्यम से एक युवा अपनी भिन्न शक्तियों (यथा वैचारिक , सामाजिक या राजनैतिक ) को दिशा देता है , पुष्ट करता है और प्रदर्शित करता है। इस प्रकार एक समूह का निर्माण होता है। यह समूह कोई संगठन या संस्थान का स्वरुप नहीं ग्रहण करते हैं क्योंकि इनमे तात्कालिकता का तत्व ज्यादा प्रभावी होता है। इन समूहों को सामान्यतः भीड़ कहते हैं। 

भीड़ का भौतिक स्वरुप होना कोई आवश्यक नहीं है इसके अस्तित्व के लिए। सामान विचारों की भिन्न दैर्घ्य (Frequency) वाली तरंगों का समुच्चय भी भीड़ का निर्माण करता है। आज के तकनीक समृद्ध समाज में ऐसे भीड़ की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। चूँकि इनमे विचारों का तरंग दैर्घ्य (Wave Frequency) व्याकरण रहित आरोहण या अवरोहण , उच्च या निम्न तल को  प्राप्त करता है जिसके कारण शोर पैदा होता है। चूँकि इनमे शोर होता है इसलिए इनकी आवाज अधिकाधिक लोगों तक पहुँचती है। कुछ प्रभाव तो इनका पड़ता ही है जन मानस पर। इस प्रकार शोर और भीड़ दोनों मिलकर जनमत (Public Opinion) का निर्माण करते हैं। 

जनमत वह यंत्र है जो सत्ता को तार्किक एवं वैधानिक बनाती है। और सत्ता राजनीति का पहला और आखिरी कदम। 

समय  निष्पक्ष होने का है न कि तटस्थ होने का। अकेलेपन के शिकार प्रौढ़ और वृद्ध (केवल शारीरिक रूप से नहीं) भीड़ और शोर के इस स्वरुप का रूप परिवर्तन का मार्ग खोजें अन्यथा उनकी हाय तौबा विधवा - विलाप  के सिवा कुछ नहीं होगी और तटस्थता का कलंक लगेगा सो अलग। 

करुणेश 
पटना 
२५। ०३। २०१७ 


Wednesday, 22 March 2017

उगटा पुराण


हिन्दू धर्म ग्रंथों में पुराण का बहुत महत्व है। पुराण भी कई हैं और हर पुराण की रचना कुछ निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रख कर की गई है। पुराणों में अंतर्सबंध भी होता है। लेकिन उगटा  पुराण  धार्मिक पुराणों से पूर्णतः भिन्न है। इसे अधिक से अधिक व्यवहार पुराण कहा जा सकता है। 


वास्तव में उगटा  पुराण  कोई पुस्तक नहीं बल्कि एक क्रिया है। बिहारी बोलचाल में इसे उगटा या उघटा पुराण कहते हैं। अन्य भाषाओँ या  बोलियों में इसके समानार्थी शब्दों की जानकारी मुझे नहीं है। 

जब किसी व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति पर अतीत में कहे या किये गए किसी कर्म या कथन को तोड़ - मरोड़ , काँट - छाँट कर इस तरह  उदधृत  किया जाये कि पहले व्यक्ति का कथन या क्रिया की तार्किकता और सामयिकता सिद्ध हो सके तो ऐसी क्रिया या कथन का होना उगटा या उघटा पुराण का होना सिद्ध करता है। निंदा रस  इस पुराण की अंतर्धारा है। क्रोध , झुंझलाहट , चिड़चिड़ाहट और अधैर्य इसके मुख्य उत्प्रेरक होते हैं।  इसकी उत्पत्ति का स्रोत संस्कृत के इस पद में कुछ कुछ झलकता है। 

काव्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छति धीमताम। 
व्यसनेन च मूर्खानाम निद्रया कलहेनवा। 
(वर्तनी की अशुद्धियाँ माफ़ कर दी जाएं )

पुरुष सामन्यतः इसका प्रयोग अपने ऑफिसों में करते हैं। अपने सहकर्मियों के लिए और उनके साथ। स्त्रियां इसका प्रयोग घरों में करती हैं। शादी - शुदा महिलाएं इसका प्रयोग अपनी सास , गोतनी और ननद - भौजाई के लिए ज्यादा करती हैं। इसे व्यव्हार में लाने  वाले या वाली सात्विक भाव से इसकी शुरुआत करते हैं। इसकी पूर्णता सामान्यतः रौद्र रस या वीभत्स रस पर होती है। चाहे इसकी पूर्णता कैसे भी हो भविष्य के लिए इसकी उपयोगिता कभी समाप्त नहीं होती है।

उगटा  पुराण  विश्व व्यापी है। राजनितिक दल और धर्म गुरु अपने सत्ता संस्थानों के हित - अहित के निकट और दूर गामी परिणामों को ध्यान में रखकर इसका प्रयोग करते हैं। यह एक मात्र ऐसा कार्य व्यवहार है जिसमे इंडिविजुअल और इंस्टिट्यूशन दोनों मिलकर आइडियल इडियोटिक्स करते हैं जिसे सामान्य जनता उनका मार्ग दर्शन समझती  है और " येन महाजना गता सः पन्था " की तर्ज़ पर पर आँख मूँद कर आगे बढ़ती है। 

उगटा या उघटा शब्द की व्युत्पत्ति उघाड़ना या उघड़ना में मानी जा सकती है। उघड़ना गरीबी को प्रदर्शित करता है जैसे उघड़े वस्त्र और उघाड़ना स्वैच्छिक प्रदर्शन है और इसमें कायिक भाव का अर्थ ज्यादा झलकता है। कहीं यही  तो कारण नहीं कि हर उगटा  पुराण  की पूर्णता व्यतिगत आक्षेपों और चरित्र हनन पर समाप्त होती है। 

करुणेश 
पटना 
२२। ०३। २०१७ 


Saturday, 18 March 2017

हराना

जीतने से ज्यादा ख़ुशी हमें हराने में मिलती है। जीतना व्यक्तिगत मामला है। हराने में व्यापकता होती है। जीत दीर्घजीवी नहीं होती। हराया जाना जीतने से भी बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इसीलिए जीतने पर विचार मंथन कम  ही होता है लेकिन हराये जाने के बाद  मंथन ,चिंतन और मनन एक आवश्यक प्रक्रिया है। 

हराने का सुख जीतने के सुख से दुगुना होता है। इसीलिए टेलीविज़न और अख़बारों में हराये गए लोगों की खबरें प्रमुखता पाती हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में जीतने का सुख हमें मुश्किल से मिलता है। हारना हमारे जीवन का स्थायी भाव है। लेकिन हमें हराया जाना पसंद नहीं। 

हराये जाने से हमारा कद छोटा होता है। हम बड़े नहीं बन पाते। इसलिए हम या तो जीतते हैं या हारते हैं लेकिन कभी हराये नहीं जाते। आखिर तर्क , मुहाबरे , लोकोक्ति और प्रेरक शब्दावलियाँ किस दिन  के लिए गढ़ी  जाती हैं। हराये जाने के बाद जीतने वाले की आँखों की ख़ुशी मुझे महत्वहीन बनाये इससे पहले बेहतर है मैं हार जाऊं। 
अपनी रूखी सूखी थाली के सामने दूसरे को छप्पन भोग खाते हुए निहारने की प्रजातान्त्रिक उदारता राजनीतिक दलों में हो तो हो मेरे पास तो नहीं है। 

करुणेश 
पटना 
१८। ०३। २०१७ 

Thursday, 2 March 2017

कॉकटेल

किसी व्यक्ति के बारे में हमारी समझ उसके कार्यों और कथनों से बनती है। लेकिन व्यक्तियों से  हमारे सम्बन्ध उनके द्वारा किये गए कार्यों और बोले या लिखे हुए  कथनों से उत्पन्न प्रभाव के आधार पर बनते हैं। किसी के द्वारा किया गया कोई कार्य या कहा गया कथन जिस हद तक हमें सहज या असहज बनाता है हम वैसी ही भावनाओं के द्वारा अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। सामान्यतः हमारी प्रतिक्रियाएं हमारी धारणाओं , निष्ठाओं , ग्रंथियों एवं आग्रहों की निरंतरता का द्योतक होती हैं। कुछ संद्रर्भों में तो हम हठी हो जाते हैं। समय और परिस्थितियां भी हमारे संबंधों के समझ का कारक होती हैं। 

अब करते हैं संस्थानों की बात। संस्थानों की निर्मिति मानव जनित है। ये सामान्यतः उद्देश्यपरक होते हैं। यहाँ एक बात स्पष्ट करनी बहुत जरूरी है। वो ये कि पदों का मूल स्वरुप भी संस्थानगत ही होता है। पद चाहे पारिवारिक हों जैसे माता पिता, भाई बहन, पति पत्नी या सामाजिक , धार्मिक , राजनैतिक या किसी भी और क्षेत्र से सम्बंधित। कुछ संस्थान  मात्र विचारों से गढ़े जाते हैं जैसे राष्ट्र और समाज  जिनका भौतिक स्वरुप अनेकानेक रूपों में अभिव्यक्त होता है। विचार संस्थानों के बहुल स्वरूपों के कारण इनके बारे में हमारी समझ अक्सर सुस्पष्ट और सुपुष्ट नहीं होती है। 

जैसे व्यक्तियों के अन्तर्सम्बन्ध होते हैं वैसे ही संस्थानों के भी अन्तर्सम्बन्ध होते हैं। इतना ही नहीं व्यक्तियों और संस्थानों के भी अन्तर्सम्बन्ध होते ही हैं। बेशक सारे संस्थान या तो स्वयं व्यक्ति होते हैं या व्यक्ति जनित / निर्मित। अन्तर्सम्बन्धों की बहु स्तरीयता इसे एक पक्षीय नहीं रहने देती। समय और परिस्थितियों की गोद इन्हें मात्र बहु पक्षी ही नहीं बनाती बल्कि बहु रूपी भी बनाती है। 

सारी जटिलताओं के बावजूद अंतरसंबंधों की बहुरूपता और बहु पक्षीयता एक साथ मौजूद होती है। समस्या तब होती है जब भाषिक उग्रता और असभ्यता या शारीरिक और तकनीकी हिंसा अभिव्यक्ति का स्वरुप ग्रहण करती है। व्यक्तियों के सन्दर्भ में ऐसी अभिव्यक्तियों का प्रभाव अल्प जीवी और सीमित होता  है लेकिन यदि संस्थान  ऐसा आचरण करते हैं या संस्थानों द्वारा ऐसे आचरण अभिव्यक्ति पाते हैं तो बड़े स्तर पर समरसता भंग होती है और इसके प्रभाव भी दूरगामी होते हैं। युद्ध के कारण चाहे जितने भी सार्थक हों अंततः सारे पक्ष इसे विभीषिका ही मानते हैं।शाब्दिक,वाचिक ,शारीरिक और तकनिकी उग्रता के तात्कालिक प्रभाव का सम्मोहन व्यक्तियों और संस्थानों के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। 

और अंत में निष्कर्षवादी होने का जूनून इसे एक नशीला कॉकटेल बनाता है। जिसने सबसे पहले निष्कर्ष निकाला  उसका कॉकटेल उतना नशीला। 

पता नहीं क्यों ऐसी कॉकटेल पार्टी में व्यक्ति तो व्यक्ति संस्थान  भी नशे का शिकार होने को इतना उत्सुक क्यों हैं ?

करुणेश 
पटना 
०२। ०३। २०१७ 

Wednesday, 1 March 2017

गुलमोहर

हम सबने गुलमोहर के पेड़ देखे ही हैं। सड़कों के किनारे। घने , छतनार और छायादार लेकिन बहुत ऊँचे नहीं। ये अपने को अपने फूलों के माध्यम से बेहतर अभिव्यक्त करते हैं। चटख लाल या पीले रंगों में। अभी मौसम भी इनका ही है इसलिए इनकी बात लेकिन इसी बहाने कुछ और भी।

गुलमोहर के फूल खिलते हैं और राहों में बिखर जाते हैं। यही इनकी नियति है। जब सूरज की किरणों का ताप प्रखरतर होने लगता है वही मौसम इन्हें अपने लिए अनुकूल लगता है। खिलने के लिए भी और बिखरने के लिए भी। श्रृंगार और सौंदर्य के लिए सामान्यतः अप्रयुक्त।  शुष्क होती हुई प्रकृति और तप्त होती हुई सूर्य किरणों की चुनौती इसे स्वयं को अभिव्यक्त करने का श्रेष्ठ समय लगता है। शायद विरोध के रोर  में प्रतिरोध के स्वर इसी प्रकार अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं। 

दिल्ली के रामजस कॉलेज की गुरमेहर मेरे लिए तो इस मौसम का गुलमोहर ही है। अपनी चटख अभिव्यक्तिओं के साथ। भावनाओं के गहरे रंगों से सराबोर। श्रृंगार और सौंदर्य से परे। मेरी विचार वीथिका में बिखरी हुई। 

करुणेश 
पटना 
०१। ०३। २०१७ 

Wednesday, 22 February 2017

Time & Space

We live in time.We live with time.Perhaps it is the both we live in time and live with time together.Time is a continuity. So we are a pattern of continuity. Why us only , in fact all that exists are nothing but pattern of continuity. But if something even an abstract exists, it exists if it has a volume. What contains this existence.To the best of my understanding it is space. 

So all that exists are volume form of Time and Space.

The lineage of intellectual culture has developed various techniques of deciphering time and space through various ways. The prominent two are science and spirituality.

The science tries to decipher time and space through reasons & logic proven with substantial experimental proofs.Largely these are generic in nature and as such invariably the results being the same always and ever provided the defined constants are strictly maintained. It is therefore easy in practice and the modern society relies the most on it.But Science has failed to conceptualize reverse continuity.

The spirituality is individual oriented.Physical states and objects are not so relevant as in scientific practices.But it confines itself to human beings only. The question in my mind relating to spirituality is the state of spirituality in non human lives such as animals & plants. But it is difficult to imagine one such human who have ever not realized the essence of spirituality throughout his lifetime. No matter it happened so silently that it remained unexpressed.Reverse continuity finds a logic here but not so trustworthy on scientific scales and the nature being few and scarce limited to certain individuals (so called enlightened ones).Hence it fails to have universal acceptance.

It is also a challenge to me whether time and space are two different entities or they are one being expressed in different forms or states. I have no answer. Defining these two may mean limiting these two and it will go contrary to the concept of continuity.

So let me be with time and space and much better I be the time and space as I realize it if it can be so.

Karunesh

Patna

22.02.2017

Friday, 27 January 2017

गणतन्त्र

सत्ता के उत्तुंग शिखर पर 
आज राष्ट्र का गौरव गर्जन 
कितना अद्भुत वैभव दर्शन !

मत देख उधर , मत देख इधर 
नजरें बस रख तू यहीं इधर 
कस अपने शब्दों की वल्गा 
सत्ता - पोषित सारथ्य दिखा। 

सुन कर हुंकार उठी लेखनी 
मत रोक मुझे 
मत टोक मुझे 
मत मुझे दिखा तू एक तर्जनी। 
मैं मौन रहूँ या रहूँ मुखर 
पर सदा रही निष्पक्ष प्रखर।  

माना कुछ उपलब्ध हुआ 
पर सब का कहाँ प्रारब्ध हुआ। 
मैं विजय गीत फिर कैसे गाऊँ ?
विरुद - रागिनी क्यों भला बजाऊं ?

तन्त्र कहाँ स्वतंत्र हुआ ?
झुक कर देखो और बताओ 
सच में कितना गणतन्त्र हुआ। 

करुणेश 
पटना 
२७। ०१। २०१७ 

(रचना तिथि - २६। ०१। २०१७ )

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे न्यायधीश मरे न्यायालय लेकिन मौन । इतने सर हैं , इतने बाजू देखो लेकिन बोले, कितने - कौन ? सत्ता की कुंडी खड़काने आये जो दो -...