बचपन में हमें पढ़ाई नहीं अच्छी लगती है। जवानी में हमें विवेक और विनम्रता नहीं पसंद आती। अधेड़ उम्र में हमें ज्ञान नहीं भाता। और बुढ़ापे में हमें तकनीक नहीं पसंद आती। इन चार नापसंदगियों के साथ हमारा समाज बनता है अपवादों को छोड़कर।
आइये ठीक इसका उल्टा सोचें। बचपन को खेल पसंद है। जवानी को उत्साह और तात्कालिकता। अधेड़ उम्र को धारणाएं पसंद आती हैं। और बुढ़ापे को इतिहास।
आज के समाज को देखकर मुझे कभी कभी ऐसा लगता है जैसे एक समाज में चार अलग अलग समाज एक साथ रह रहे हैं विचार आचार और व्यव्हार के स्तर पर। समाज के इन चार रूपों में एक अन्तर्सम्बन्ध भी है और अंतर्द्वंद्व भी। लेकिन हम में से अधिकांश पसंदगी या नापसंदगी के इन्ही पड़ावों से गुजरते हुए अपनी अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हैं।
क्या पसंदगी - नापसंदगी के क्रम को जीवन वय के विभिन्न चरणों में उलट पुलट कर कुछ बेहतर हासिल किया जा सकता है ? या यह मात्र एक कौतुक भरा विचार है।
शायद इस पर सोचा जा सकता है।
करुणेश
पटना
०४। ०९। २०१७
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