बहुत दिन पहले एक हिंदी कहानी पढ़ी थी जिसका शीर्षक था - " टेकबे त टेक ना त गो। " कहानी पढ़ने के उपरांत शीर्षक का अर्थ समझ में आया। एक सब्जी बेचने वाली स्त्री से कोई व्यक्ति सब्जी का ज्यादा मोल - भाव कर रहा था जिस पर झुंझला कर सब्जी बेचने वाली ने जो कहा वही शीर्षक बन गया जिसका अर्थ था लेना (Take) है तो लो नहीं तो जाओ। लोक मानस द्वारा की गयी भाषा का बोली में रूपांतरण।
आज अचानक ही यह शीर्षक याद आ गया फेक न्यूज़ के सन्दर्भ में शाब्दिक / लयात्मक साम्यता के कारण।
कंप्यूटर से निकल कर मोबाइल में समाया हुआ सोशल मीडिया फेक न्यूज़ का सबसे बड़ा दुर्ग है। मैं फेक न्यूज़ को दो वर्गों में रखता हूँ। पहला वह जिसे निहित उद्देश्य के साथ सार्वजानिक किया जाता है। और दूसरा जिसका कोई निहित उद्देश्य तो नहीं होता लेकिन जिसे अधूरी /अधकचरी जानकारी सार्वजानिक करने की उतावली होती है। गूगल पंडित अपने यजमानों को बगैर दक्षिणा यह सुविधा मुहैया करते हैं - सर्वथा निरपेक्ष होकर।
फेक न्यूज़ ब्रॉडकास्टर/ टेलीकास्टर और प्रमोटर / पट्रोनिज़ेर का टैग लाइन या मार्केटिंग मंत्र है - टेकबे त टेक ना त फेंक। इसे फेंकने वाले को टेकने वाले की चिंता नहीं होती। हम जैसे अपना कचरा फेंकते हैं वैसे ही इसे भी। और थोड़े ही यह पर्यावरण को गन्दा करता है। फेंकने के कारण होने वाले मानसिक प्रदूषण के बारे में भारत में कानून असमंजस में है। बाकी शासकीय व्यस्था तब तक इसके साथ चलने की कोशिश कर रही है ऐसा मुझे भरोसा है।
इस लिए आप भी उतने दिनों तक इसी मन्त्र को अपनाये - टेकबे त टेक ना त फेंक।
करुणेश
पटना
२७। ०५। २०१७
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