Wednesday, 10 May 2017

सखी , वे मुझसे कहकर जाते !

कल रात (आज बुद्ध पूर्णिमा है) मैंने एक सपना देखा। 

आधी रात और ब्रह्म मुहूर्त के बीच का समय था। अचानक मुझे एक बूढी आवाज अपने कानों में सुनाई पड़ी। पहले मुझे यह मच्छर की भिनभिनाहट जैसी लगी। लेकिन अर्धचेतन में भी मैं दूसरे या तीसरे बार में शब्दों को स्पस्ट समझ रहा था। अरे यह तो राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त रचित यशोधरा की एक पंक्ति थी जो मेरे कानों को सुनाई दे रही थी - " सखी , वे मुझसे कहकर जाते !" मुझे मेरे चौकने जैसा आभास हुआ। मैंने नींद में ही अपनी आँखों पर जोर दिया और अपनी पपनियों को आँखों पर से थोड़ा हटाया। मुझे मैथली शरण गुप्त दिखे। वही गांधी टोपी , थोड़ा लम्बोतरा चेहरा , चेहरे पर खीचड़ीनुमा दाढ़ी , थोड़े धंसे हुए गाल , खादी का कुरता और उसके ऊपर अण्डी , बाएं कंधे पर एक छोटा सा सफ़ेद गमछा। आधी खुली आँखों से ही मैं उनको पहचान तो गया था पर कोई और विचार मेरे मन में आता इसके पहले ही मुझे उनके पीछे गौतम बुद्ध खड़े दिखने लगे। गुप्त जी शायद अगली पंक्ति मुझे सुनाने ही वाले थे कि इसके पहले ही गौतम बुद्ध बोल पड़े। 

बुद्ध - कविवर !
गुप्त (पीछे मुड़ते हुए) - कौन ?
बुद्ध - मैं , गौतम। 
गुप्त - अरे आप तथागत। आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हो गया। कभी सोचा भी न था कि आपके दर्शन भी हो सकेंगे। 
बुद्ध - मुझसे मिलने की कभी इच्छा भी हुई क्या आपको ?
गुप्त - ऐसा न कहें भगवन। 
बुद्ध - क्यों ? आपकी भेंट अगर रामानुज लक्ष्मण से भी होती तो भी आप ऐसा ही व्यव्हार करते। 
गुप्त -  मैं कुछ समझा नहीं। 
बुद्ध - यही तो समस्या है। 
गुप्त - क्या ?
बुद्ध - नहीं समझना और क्या ?
गुप्त - पर कैसे ?
बुद्ध - समझने के लिए सम्यक विचार करना होता है। 
गुप्त - हाँ। 
बुद्ध - आपने यह किया ही नहीं। 
गुप्त - मुझे ऐसा तो नहीं लगता। लेकिन आप कहते हैं तो मान लेता हूँ। 
बुद्ध - मेरे कहने से मानने की जरूरत नहीं है। 
गुप्त - क्यों ? 
बुद्ध - अब मानने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। 
गुप्त - ज्ञान वह भी बुद्ध से, कभी भी मिले , सौभाग्य है। 
बुद्ध - तो "यशोधरा" लिखने से पहले इसका प्रयास करते। या कम से कम "उर्मिला" के बाद तो निश्चय ही करना चाहिए था। मगर सम्यक ज्ञान का सिद्धांत दांपत्य रस लेने वालों को कहाँ प्राप्त होगा। अपने दुःख की समानुभूति के लिए दूसरे के कंजुगल लाइफ को पब्लिक कर देना अनैतिक और अशोभनीय तो है ही असाहित्यिक भी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आपको ठीक ही चिरगंवार (चिरगावँ निवासी होने के कारण आपको दिया गया विशेषण ) कहा था। नागरीय जीवन पद्धति को समझना आपके वश में नहीं। 

गुप्त जी कुछ बोल पाते और मैं कम से कम दोनों के अभिवादन के लिए अपने हाथ जोड़ पाता इसके पहले  चिड़ियों की चहचहाट ने मेरा सपना ही भंग कर दिया। अब जब सपना ही टूट गया तो आगे क्या कहूँ। 

करुणेश 
पटना 
१०। ०५। २०१७ 

No comments:

Post a Comment

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे न्यायधीश मरे न्यायालय लेकिन मौन । इतने सर हैं , इतने बाजू देखो लेकिन बोले, कितने - कौन ? सत्ता की कुंडी खड़काने आये जो दो -...