Wednesday, 3 May 2017

कब तक , किस हद तक

पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों के शवों को एक बार फिर क्षत विक्षत किया। यह कोई पहली बार नहीं है।  इसके पहले भी ऐसी घटनाएं हुई हैं। राजनैतिक प्रतिक्रियाएं भी पिछली बार की तरह ही हैं और नागरिक प्रतिक्रियाएं भी। 

प्रश्न केवल आत्म सम्मान का नहीं है। प्रश्न एकता और अखंडता का नहीं है। प्रश्न राजनैतिक इच्छाशक्ति की दुर्बलता का भी नहीं है। प्रश्न संभावित वैकल्पिक करवाई का है जिसके दो महत्वपूर्ण हिस्से हैं - कब तक और किस हद तक। 

मैं विदेश मामलों का कोई ज्ञाता नहीं हूँ और न ही मुझे  आतंरिक मामलों की विशेज्ञता हासिल है। लेकिन एक नागरिक की हैसियत से अपनी बात कहना चाहता हूँ। 

इस पूरी समस्या के तीन कोण हैं। पहला कश्मीर से १९४७ - १९९० तक  लगातार हिन्दुओं का पलायन जिसने बहु धार्मिक सामाजिक संरचना को पूरी तरह समाप्त कर दिया। दूसरा १९७१ के युद्ध के फलस्वरूप पाकिस्तान का विभाजन और पाकिस्तान के राजनैतिक जमात की विश्वसनीयता का पाकिस्तानी जनता में पूरी तरह ख़तम हो जाना। तीसरा चीन और अमेरिका की भारत विरोधी विदेश नीति और पाकिस्तान को वैश्विक , आर्थिक और सामरिक सहयोग और संरक्षण प्रदान करना। 

यह एक कड़वी सच्चाई है कि कांग्रेस और उनके नेताओं द्वारा लगातार मुस्लिम तुष्टिकरण किया गया। इसके अनेकों उदाहरण इतिहास में दर्ज़ हैं। लेकिन अब क्या हिन्दू तुष्टिकरण चला कर अतीत को सुधारा जा सकता है। समाधान समस्या का विपर्यय (Opposite) नहीं होता। सुनने में यह बात बेहद कड़वी लगे लेकिन मेरी समझ यह कहती है कि हमें कश्मीर में एक मुस्लिम भारत की सामाजिक संरचना कर देनी चाहिए राजनैतिक और सामाजिक रूप से और भारतीय संविधान के दायरे में ताकि यह मुस्लिम भारत पाकिस्तान के धर्म पोषित आतंकवाद का सामना कर सके। यानि इस्लाम बरक्स इस्लाम। मैं किसी आदर्श की बात नहीं कर रहा हूँ। हो सकता है ऐसा होने में एक पूरी पीढ़ी निकल जाए लेकिन एक राष्ट्र के सन्दर्भ में २५ - ३० साल कोई लम्बी समयावधि नहीं होती। 

पाकिस्तान के साथ आर्थिक और राजनैतिक सम्बन्ध विच्छेद कम से कम दो तीन दशकों तक। आतंरिक और बाह्य स्तर पर  राजनैतिक और आर्थिक नुकसान का जोखिम उठाते हुए अमेरिका से लालच की कूटनीति न करने का संकल्प क्योंकि चाहे कुछ भी हो अमेरिका का दक्षिण एशियाई हित पाकिस्तान की सत्ता और सैन्य व्यस्था के पोषण , संरक्षण और संवर्धन में ही निहित है। अब चीन की बात। हम एक साथ कई मोर्चों पर जोखिम नहीं उठा सकते। इसलिए यह आवश्यक है कि हमारी सामरिक तैयारी पाकिस्तान के बजाय चीन को सामने रख कर होनी चाहिए। चीन की कोशिश हमेशा ही यह होगी की युद्ध भूमि पाकिस्तान या भारत हो और चीन पाकिस्तान का मददगार। लेकिन चीन ऐसी किसी परिस्थिति में होना पसंद नहीं करेगा। परमाणु अस्त्र का भय न सिर्फ हमें होना चाहिए बल्कि उसी मात्रा में औरों को भी होना चाहिए। यह भय ही शक्ति संतुलन की तुला होगी। 

मैं नहीं जानता मेरी बात तर्कपूर्ण और व्यवहारिक है भी या नहीं। हमें यू एन सिक्योरिटी कौंसिल के मेंबरसिप को राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धि के मोह से मुक्त होने की नितांत आवश्यकता है। हमें अमेरिका से मिलने वाले वीसा का मोह भी त्यागना होगा। हम संप्रभु हैं और हम समर्थ हैं।  अपने दम पर राष्ट्र और इसके नागरिकों , सैनिकों को सम्मानपूर्ण जीवन देने में। यह निष्ठां राजनैतिक विवेक का स्थायी भाव होना चाहिए। बदलती रणनीतियां छोटी सफलताएं बेशक दिलवा दें लेकिन लम्बे काल खंड के लिए राष्ट्र को सबल नहीं बना सकती। और हाँ अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात एक राष्ट्र के रूप में संवैधानिक शीर्ष को किसी दूसरे देश की आंतरिक अशांति को वैदेशिक कूटनीति का हथियार बनाने से बचना चाहिए। 

करुणेश 
पटना
०३। ०५। २०१७  

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