Thursday, 2 March 2017

कॉकटेल

किसी व्यक्ति के बारे में हमारी समझ उसके कार्यों और कथनों से बनती है। लेकिन व्यक्तियों से  हमारे सम्बन्ध उनके द्वारा किये गए कार्यों और बोले या लिखे हुए  कथनों से उत्पन्न प्रभाव के आधार पर बनते हैं। किसी के द्वारा किया गया कोई कार्य या कहा गया कथन जिस हद तक हमें सहज या असहज बनाता है हम वैसी ही भावनाओं के द्वारा अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। सामान्यतः हमारी प्रतिक्रियाएं हमारी धारणाओं , निष्ठाओं , ग्रंथियों एवं आग्रहों की निरंतरता का द्योतक होती हैं। कुछ संद्रर्भों में तो हम हठी हो जाते हैं। समय और परिस्थितियां भी हमारे संबंधों के समझ का कारक होती हैं। 

अब करते हैं संस्थानों की बात। संस्थानों की निर्मिति मानव जनित है। ये सामान्यतः उद्देश्यपरक होते हैं। यहाँ एक बात स्पष्ट करनी बहुत जरूरी है। वो ये कि पदों का मूल स्वरुप भी संस्थानगत ही होता है। पद चाहे पारिवारिक हों जैसे माता पिता, भाई बहन, पति पत्नी या सामाजिक , धार्मिक , राजनैतिक या किसी भी और क्षेत्र से सम्बंधित। कुछ संस्थान  मात्र विचारों से गढ़े जाते हैं जैसे राष्ट्र और समाज  जिनका भौतिक स्वरुप अनेकानेक रूपों में अभिव्यक्त होता है। विचार संस्थानों के बहुल स्वरूपों के कारण इनके बारे में हमारी समझ अक्सर सुस्पष्ट और सुपुष्ट नहीं होती है। 

जैसे व्यक्तियों के अन्तर्सम्बन्ध होते हैं वैसे ही संस्थानों के भी अन्तर्सम्बन्ध होते हैं। इतना ही नहीं व्यक्तियों और संस्थानों के भी अन्तर्सम्बन्ध होते ही हैं। बेशक सारे संस्थान या तो स्वयं व्यक्ति होते हैं या व्यक्ति जनित / निर्मित। अन्तर्सम्बन्धों की बहु स्तरीयता इसे एक पक्षीय नहीं रहने देती। समय और परिस्थितियों की गोद इन्हें मात्र बहु पक्षी ही नहीं बनाती बल्कि बहु रूपी भी बनाती है। 

सारी जटिलताओं के बावजूद अंतरसंबंधों की बहुरूपता और बहु पक्षीयता एक साथ मौजूद होती है। समस्या तब होती है जब भाषिक उग्रता और असभ्यता या शारीरिक और तकनीकी हिंसा अभिव्यक्ति का स्वरुप ग्रहण करती है। व्यक्तियों के सन्दर्भ में ऐसी अभिव्यक्तियों का प्रभाव अल्प जीवी और सीमित होता  है लेकिन यदि संस्थान  ऐसा आचरण करते हैं या संस्थानों द्वारा ऐसे आचरण अभिव्यक्ति पाते हैं तो बड़े स्तर पर समरसता भंग होती है और इसके प्रभाव भी दूरगामी होते हैं। युद्ध के कारण चाहे जितने भी सार्थक हों अंततः सारे पक्ष इसे विभीषिका ही मानते हैं।शाब्दिक,वाचिक ,शारीरिक और तकनिकी उग्रता के तात्कालिक प्रभाव का सम्मोहन व्यक्तियों और संस्थानों के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। 

और अंत में निष्कर्षवादी होने का जूनून इसे एक नशीला कॉकटेल बनाता है। जिसने सबसे पहले निष्कर्ष निकाला  उसका कॉकटेल उतना नशीला। 

पता नहीं क्यों ऐसी कॉकटेल पार्टी में व्यक्ति तो व्यक्ति संस्थान  भी नशे का शिकार होने को इतना उत्सुक क्यों हैं ?

करुणेश 
पटना 
०२। ०३। २०१७ 

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