Saturday, 25 March 2017

शोर और भीड़

आंकड़ों में भारत युवाओं का देश है। सामान्यतः युवावस्था में दोस्तों की संख्या अधिक होती है। शायद ही हम किसी नौजवान को अकेला पाते हैं। अकेलापन अधिकतर प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था की संगति  है। जवानी अपने आस पास संख्या बल रखती है जो दीखता है। इसका अनुभव कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में स्वयं ही कर लेता है। संख्या बल के माध्यम से एक युवा अपनी भिन्न शक्तियों (यथा वैचारिक , सामाजिक या राजनैतिक ) को दिशा देता है , पुष्ट करता है और प्रदर्शित करता है। इस प्रकार एक समूह का निर्माण होता है। यह समूह कोई संगठन या संस्थान का स्वरुप नहीं ग्रहण करते हैं क्योंकि इनमे तात्कालिकता का तत्व ज्यादा प्रभावी होता है। इन समूहों को सामान्यतः भीड़ कहते हैं। 

भीड़ का भौतिक स्वरुप होना कोई आवश्यक नहीं है इसके अस्तित्व के लिए। सामान विचारों की भिन्न दैर्घ्य (Frequency) वाली तरंगों का समुच्चय भी भीड़ का निर्माण करता है। आज के तकनीक समृद्ध समाज में ऐसे भीड़ की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। चूँकि इनमे विचारों का तरंग दैर्घ्य (Wave Frequency) व्याकरण रहित आरोहण या अवरोहण , उच्च या निम्न तल को  प्राप्त करता है जिसके कारण शोर पैदा होता है। चूँकि इनमे शोर होता है इसलिए इनकी आवाज अधिकाधिक लोगों तक पहुँचती है। कुछ प्रभाव तो इनका पड़ता ही है जन मानस पर। इस प्रकार शोर और भीड़ दोनों मिलकर जनमत (Public Opinion) का निर्माण करते हैं। 

जनमत वह यंत्र है जो सत्ता को तार्किक एवं वैधानिक बनाती है। और सत्ता राजनीति का पहला और आखिरी कदम। 

समय  निष्पक्ष होने का है न कि तटस्थ होने का। अकेलेपन के शिकार प्रौढ़ और वृद्ध (केवल शारीरिक रूप से नहीं) भीड़ और शोर के इस स्वरुप का रूप परिवर्तन का मार्ग खोजें अन्यथा उनकी हाय तौबा विधवा - विलाप  के सिवा कुछ नहीं होगी और तटस्थता का कलंक लगेगा सो अलग। 

करुणेश 
पटना 
२५। ०३। २०१७ 


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