Thursday, 13 July 2017

पिछले दिनों


पिछले काफी दिनों से कुछ लिख नहीं पाया। ऐसा नहीं कि लिखने के लिए विषयों की कमी थी। किसानों की समस्या। उनकी आत्महत्याएं। मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसानों के प्रदर्शन का प्रशासनिक दमन। बिहार की ढहती - चरमराती शिक्षा व्यस्था के नमूने के तौर पर आया इस वर्ष का मैट्रिक रिजल्ट। मैंने सोचा लिखने से पहले कुछ पढ़ा जाए इन विषयों पर। किसानों की समस्या पर स्वामीनाथन आयोग का नाम भर सुना था। नेट पर इसका सारांश पढ़ा। थोड़ा समझा। किसानों और किसानी से सम्बंधित लेख - आलेख भी नेट पर पढ़े। पर जो पढ़ सका उस से इतर और कुछ सोच नहीं पाया। यह भी मान लिया कि इस विषय पर मैं कुछ लिखने की कोशिश करूँ  इस से बेहतर है कि कुछ और पढूं , कुछ और सुनूं। इसी तरह बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर मुचकुन्द दुबे जी की अध्यक्षता वाली कॉमन स्कूल सिस्टम पर लिखी २६८ पन्नों की रपट भी पढ़ी। यह तो नहीं कह सकता कि पूरी पढ़ डाली लेकिन अधिकाँश भाग जरूर पढ़ा। अभी मेरा छोटा सा दिमाग स्वामीनाथन और मुचकुन्द दुबे की रपटों को करीने से सजा भी नहीं पाया था कि जफ़र और जुनैद की भीड़ द्वारा की गयी हत्या की खबरें मेरे चारों ओर चक्कर काटने लगीं। संवेदना के समय समाप्ति की सूचना भारत की आर्थिक आज़ादी (जी एस टी ) के उद्घोष की शंख ध्वनि में मद्धम होते - होते शून्य  में विलीन हो गयी। 

शायद इतना ही काफी न था। राष्ट्रपति के होने वाले  चुनाव के लिए राजनितिक दाँव - पेंच का अद्भुत दृश्य भी आँखों से गुजरा। दलितों का इस से ज्यादा और दलन क्या हो सकता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे औरतों पर अत्याचार करने से पहले समाज उसे देवी मान लेता है।

इतनी बातों के बीच में गोरक्षा का मुद्दा तो मैं भूल ही गया। और हाँ स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री का इजराइल दौरा भी। इजराइल ने तो एक होलोकास्ट म्यूजियम बनाया है - जर्मन लोगों द्वारा यहूदियों पर की गयी बर्बरता की याद में। यहाँ भारत में तो घर ही बदल जा रहे हैं होलोकास्ट म्यूजियम के रूप में। इन्हें देखने नेता भी आते हैं। लेकिन चूँकि भारत में हर रोज कहीं न कहीं एक होलोकास्ट म्यूजियम बन रहा है (कहीं - कहीं तो पूरा मोहल्ला या पूरा गांव ) अतः नेताओं का दौरा मात्र नवीनतम म्यूजियम का ही होता है। पुराने को समाज भी भूल जाता है और नेता भी। काश ! गोएबेल्स को आज भारत में होना चाहिए था। जिस काम में आज फेसबुक और व्हाट्सप्प के बावजूद महीनों लग जा रहे हैं वह दिनों तो क्या घंटों में कर देता। सच जब तक समझ में आएगा तब तक हिटलर और गोएबेल्स अपना काम कर चुके होंगे अपने न होने के बावजूद। फिर क्या लिखना क्या कहना क्या सुनना और क्या पढ़ना। 

पश्चिम बंगाल में इन दिनों धर्म खतरे में हैं। राज धर्म और  मानव धर्म दोनों सकते में हैं। पता नहीं कौन सा धर्म खतरे में है।अब तो इसमें वैशिवकता का पुट भी शामिल हो गया है। धर्म की आधार भूमि पर सत्ता - संघर्ष और वर्ग - संघर्ष का हिंसक रूप पूरी पैशाचिकता के साथ नृत्य करता हुआ दिख रहा है।

अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों पर आतंकवादी हमला भी हो चुका है और प्रशासनिक  चूक की बात स्पस्ट है। मगर कश्मीर घाटी की हर समस्या तो पाकिस्तान जनित है। इसलिए पाकिस्तान को गालियां बक कर हमने राष्ट्र जीवन को आगे बढ़ाने का पुनीत कार्य भी प्रारम्भ कर दिया है। घटना की भर्त्सना और कड़ी निंदा की परम्परा का भी भरपूर पालन हुआ है।

देश को इन घटनाओं के बाद सुविधाजनक ऐतिहासिक अंश बताये गए। भारतीय इतिहास की भयंकर भूलों के परिमार्जन के उन्मादी विकल्प आम लोगों को उपलब्ध कराये गए। अगली भीड़ बनाने की तैयारी पूरी हो गयी है विशेषज्ञों के द्वारा। हमारे पास दो ही विकल्प है - चाहे इस ओर या उस ओर। चाहे हम किसी भी ओर हों हमारी नियति भीड़ होना है। और भीड़ की नियति राजनीति के समुद्र में मिल जाना। हम में से हरेक निर्मल जल की एक मीठी बूँद है और साथ बहना हमारा स्वाभाव मगर राजनीति के समुद्र में मिलते ही हम में से हरेक खारे  पानी की बूँद बन जाने को अभिशप्त हो रहे हैं।

कोई तो बचाये।

करुणेश
पटना
१३। ०७। २०१७ 

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