Saturday, 29 July 2017

बदलाव

बिहार में सत्रह घण्टों के अंदर सत्ता बदल गयी। नहीं , सच ये है कि सत्ता के चेहरे बदल गए। कारण और परिस्थितियां सर्व ज्ञात हैं और परिणाम भी। 

चेहरों के इस बदलाव को मैं एक आईने की तरह देखता हूँ। इस आईने में भारतीय राजनीति का जो चित्र उभर रहा है वह बहु आयामी न होकर द्वी ध्रुवीय दिख रहा है जिसके एक सिरे पर साम्प्रदायिकता है तो दूसरे सिरे पर भ्रष्टाचार। भारतीय राजनीतिज्ञों को जनता को देने के लिए यही दो चीज़ें हैं। जनता की मजबूरी है कि इनमे से ही कोई एक चुने। यह और ज्यादा तकलीफदेह है कि जन संवाद , बौद्धिक संवाद और पत्रकारीय संवाद - ये तीनों भी द्वी ध्रुवीय हो गए हैं और इसीलिए संवादों में गरिमा , गांभीर्य और विवेक का ह्राष उत्तरोत्तर  दिख रहा है। 

भ्रष्टाचार का अर्थ मात्र आर्थिक भ्रष्टाचार नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि आर्थिक भ्रष्टाचार के कारण ही सामाजिक विषमता और विद्वेष पैदा होते हैं। सामान्यतः सारे जन असंतोष के मूल में आर्थिक भ्रष्टाचार ही होता है। सत्ता व्यक्तिगत आर्थिक भ्रष्टाचार का शमन , दमन या प्रोत्साहन मात्र ही कर सकती है। किन्तु भ्रष्टाचार जब विचार का रूप लेकर संस्था बन जाए तो जनता भ्रमित हो जाती है। हम भ्रम की ऐसी ही परिस्थितियों के साक्षी बन रहे हैं। पढ़ने , देखने और सुनने में ये विचार बड़े सम्मोहक लगते हैं और इनके सम्मोहन का जब तक एक्सपायरी डेट आता है तब तक हम इसके शिकार हो चुके होते हैं। 

सम्प्रदायिकता कोई सोच नहीं बल्कि एक व्यव्हार है। लेकिन व्यहार का अर्थ स्वाभाविक मानवीय व्यवहार नहीं। मेरी समझ में यह एक प्रतिक्रियात्मक व्यव्हार (Reactionary Behaviour) है। सामान्यतः मनुष्य दो स्तरों  पर  जीता है - पहला शरीर के स्तर पर और दूसरा विश्वास के स्तर पर। मनुष्य के विश्वास का जब उग्र एवं अपमानजनक खंडन होने लगे या अतार्किक अति महिमांडन होने लगे तो तो सम्प्रदियकता की विष - बेल  उगती है। यह विष बेल परजीवी पौधे की तरह सामाजिक संरचना के तने के  चारों ओर लिपट जाती हैं और तने  से होकर टहनियों और पत्तों में जाने वाले सहजीवन और सहकार के जीवन रस को चूसकर समाज रूपी अक्षयवट को ही सुखा डालती है।

भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता दोनों ही मारक है। अंतिम परिणाम भी दोनों का एक ही है। फिर भी हमें दोनों में से एक का चुनाव करने को बाध्य किया जा रहा है , राजनैतिक सत्ता के द्वारा और वह भी हमारे ही नाम पर यानि आम जनता के नाम पर।

हमारे विवेक के  सामने एक गंभीर चुनौती है। सदाचारी (?) साम्प्रदायिकता  और भ्रष्टाचारी धर्मनिरपेक्षता (?) के अलग अलग मकड़ जाल में हम गहरे उलझ जाएँ इस से पहले इन्हे विच्छिन्न करना अति आवश्यक है।

करुणेश
पटना
२९ ०७। २०१७ 

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