आदरणीय बाबूजी
सादर चरण स्पर्श
हम लोग यहाँ कुशल से हैं। और यही आपकी कुशलता भी है क्योंकि आपकी मान्यता भी ऐसी ही रही है। आपके सारे नाती - पोते भी सकुशल हैं और अपनी - अपनी जगह प्रगति के पथ पर हैं।
बाबूजी आपको चिट्ठी लिखने के दो कारण हैं। पहला यह कि कल आप की पुण्य तिथि है और दूसरा यह कि मन कर रहा था यूँ ही। वैसे भी आपको चिट्ठी लिखने के लिए किसी कारण के होने की जरूरत ही नहीं। थोड़ा अल्लड़ - बल्लड़ तो होगा ही। फिर भी।
हमें याद आता है गरहनी में सुबह - सुबह आपका हनुमान जी को याद करना और उन्हें हनुमान भैया कह कर सम्बोधित करना। बड़का बाबूजी के निधन के बाद आपका हनुमान जी से बना यह रिश्ता अब हममें कौतुहल भी पैदा करता है और प्रेरणा का कारण भी बनता है।
हमें छोटकी फुआ को उनकी जिंदगी भर तीज भेजना भी याद है। बगैर कुछ कहे आप सीखा गए परम्पराओं को निभाना और छोटों को प्यार करना। सच यूँ ही नहीं परम्पराएं सदियों तक निभाने के लिए होती हैं।
हमें यह भी याद आता है बेशक प्यार अपनी संतान से करना मगर प्रशंसा उन सबकी करना जिनके कार्य और उपलब्धियां प्रशंसनीय हों। हमने सीखा है आपसे विस्तार - आकाश की तरह। अच्छा है आप स्वयं आकाश हो गए। हमें उड़ने के लिए किसी दूसरे आकाश का मोहताज़ नहीं होना पड़ा।
हमने देखा है आपका बच्चा हो जाना। गरहनी में बनास नदी किनारे रहने वाले गोपाल मिश्रा की माँ के हाथों का ओंठगन जिउतिया के बाद खाना। वह भी उनकी पूरी जिंदगी तक। बाबूजी, माँ खोज लेने का यह कौशल हम आपसे नहीं सीख पाए इसका अफ़सोस होता है।
हमने देखा है आपका अटल पर्वत हो जाना। १९७५ की इमरजेंसी के दिनों में घर आयी पुलिस घेरेबंदी से अपने बेटे को साहस पूर्वक गिरफ़्तारी से बचा लेना। इतना ही नहीं आपकी स्व लिखित जीवनी में उद्धरित कई घटनाओं का आपके द्वारा सामाजिक सरोकारों के लिए दृढ़ता पूर्वक खड़े होने का सहज बयाँ हो जाना।
धार्मिक या जातीय हुए बगैर गरहनी की जगिया , जिनती और मनकिया को बेटी का सम्बोधन दे देना। इतना ही नहीं गरजन को भी बेटा बना लेना। आज तक इनके लिए हमारे सम्बोधन दीदी और भैया ही हैं। चाहे राज़ मिस्त्री का काम करने वाले अब्दुल हई रहे जिन्हे हम हैया भैया कहते रहे या फिर मोहन मज़दूर जो हमारे लिए मोहन भैया थे जो काम के बाद हमें मुंह से तुड़तुड़ी की आवाज़ सुनाते थे। सहदेव का गोइठा आजीवन हमारे घर ही आना बाबूजी भला आपके बगैर कैसे होता। सच आप में कितने लोग थे हमारे साथ।
धोती , कुरता और जवाहर जैकेट पहन कर शाम में ओटा पर बैठते बाबूजी और उनके साथ बैठे हुए लोग जिनके लिए चाय बनाने की मांग का ड्योढ़ी से होते हुए अंगना तक पहुंचने के पहले ही बढ़ते जाना।माई का यह कहते हुए झल्लाना कि पता नहीं अब कौन इनका बेटा आ गया। चाय की हर प्याली के बाद पहले सिगरेट और फिर पान। सुबह के पनबट्टे की याद भी है जिसे बड़ी बहनें निभाती रही।
धर्मयुग , साप्ताहिक हिन्दुस्तान , दिनमान आदि पत्रिकाओं से हमारा परिचय अनायास ही हो गया था। आखिर घर में एक कमरा जो था जिसे पुस्तकालय ही तो कहते थे। अनगिनत पुस्तकों को संजो कर आपने हमें दिया था। हमी उसे संभाल नहीं पाए पूरी तरह। आपने इस पुस्तकालय का एक नाम भी दिया था - नंदन पुस्तक सदन। शायद इस नाम के जिल्द वाली कुछ पुस्तकें अब भी हों।
अपनी कविताओं के नीचे देवनागरी में आपका हस्ताक्षर आज भी हमें श्रेष्ठतम हस्ताक्षर लगता है यद्यपि अपने डॉक्टर प्रिस्क्रिप्शन पर आपके हस्ताक्षर सदैव रोमन लिपि में ही रहे। भाषा का ऐस गरिमा पूर्ण सम्मान कम देखने को मिलता है।
और बाबूजी आपको हमने देखा एक सामान्य पिता की तरह जिंदगी से जूझते हुए। बेटे बेटियों से उलाहना सुनते हुए। और फिर इन्हे ही अल्लड़ - बल्लड़ कहते हुए। नए कल की आशा में। इतना तो सीख ही लिया बाबूजी कि असली जिंदगी तो अल्लड - बल्लड़ से होते हुए ही गुजरती है लेकिन हर दिन उसे छोड़ते हुए एक नए कल की आशा के साथ।
बाबूजी सबसे छोटा बच्चा बन कर आपके साथ आपकी थाली से आपके हाथों से एक बार खाना चाहता हूँ। हाँ आप ठीक कहते हैं - पहले मैं बच्चा तो बनूँ। एक दिन मैं जरूर बच्चा बनूँगा और हाँ तब आपके आसमान की गोद में धमाचौकड़ी जरूर होगी चाहे इसके लिए आप कितना भी गुस्सा क्यों न हों।
आपके सारे दुलारे
हम सभी
हाँ सच में यही बिल्कुल सच है।
ReplyDeleteसच है बीते दिनों के वो पल जो बाबुजी के साथ बिताए हमने। कभी न खत्म होने वाली कहानी। बहुत कुछ या कुछ भी नहीं। आपको धन्यवाद करूनेश।