Thursday, 12 October 2017

गाँधी , शास्त्री , लोहिया और जे पी - मेरे लिए

कल  जय प्रकाश नारायण की जन्म तिथि थी । आज राम मनोहर लोहिया की पुन्य तिथि। और इसी अक्टूबर में २ तारीख को महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जन्म तिथि।  अख़बार , टीवी और वेब पोर्टल से कुछ हटकर एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर इन्हे जैसा जाना समझा है वही साझा कर रहा हूँ। 

महात्मा गाँधी , शास्त्री और लोहिया को मैंने देखा नहीं है। उनके जीवन और कर्म के बारे में मेरा ज्ञान किताबी और अखबारी ही रहा है। 

जय प्रकाश नारायण यानि जे पी को मैंने देखा है। मुझे इनके होने की अनुभूति भी हुई है। पहली और आखिरी बार मैंने जे पी को श्री कृष्णा मेमोरियल हॉल पटना में देखा जहाँ उनका शव अंतिम दर्शनों के लिए रखा हुआ था। लेकिन जे पी की धमक हमारे घर में संपूर्ण क्रांति के आंदोलन और इमरजेंसी के  दौरान हो चुकी थी क्योंकि मेरे बड़े भाई श्री अमरेश नंदन सिन्हा इस ऐतिहासिक घटना क्रम के सक्रिय भागीदार भी रहे और इसी दौरान उनका जेल प्रवास भी हुआ। बाबूजी का नैतिक और मौन समर्थन आज भी याद आता है। यह तो हुई व्यक्तिगत और पारिवारिक बात। 

इन चारों  के बारे में जितना मैंने जाना है उस से मेरे अंदर विस्मय का बोध होता है। कुछ कुछ वैसा जिसे अंग्रेजी में Awe & Wonder कहते हैं। विशेषकर आज के सन्दर्भ में। अज्ञेय ने कहा था - दुःख मांजता है। यह कथन इन चारों पर पूरी तरह चरितार्थ होता है। लेकिन मेरे विस्मय बोध का कारण यह नहीं है। सामान्य जीवन में दुःख की जो अवधारणा है ये चारों व्यक्तिगत रूप से उस से पार पा चुके थे। लेकिन जीवन में व्यक्तिगत सुख खोजने की जगह इन्होने जन जीवन का दुःख आत्मसात कर लिया था। दूसरों का दुःख आत्मसात करने का उनका  तर्क चाहे जो भी रहा हो लेकिन मेरे जैसे आम इंसान के लिए तो एक अजूबा ही है। क्रांति सदैव हुंकार ही नहीं भरती बल्कि  वह उद्दात्त -चित्त , उदार, गरिमामयी, करुणापूर्ण और गंभीर भी होती है। 

गाँधी अपने जिस गुण के कारण मुझमे विस्मय बोध कराते  हैं वह है साधन और साध्य की शुचिता पर जोर। साध्य के शुचिता की अवधारणा एक राजनितिक दर्शन  रूप में भारत में आज भी शैशव अवस्था में ही है। इसका मुख्य कारण व्यवस्था में बड़ी हिस्सेदारी रखने की इच्छा है।सफल होने की हड़बड़ी और तात्कालिकता के महत्व ने साधन की शुचिता के महत्व को न सिर्फ राष्ट्रीय जीवन से बल्कि दैनिक जीवन से भी लगभग गौण कर दिया है। 

कहते हैं सत्ता मद मस्त करती है और सम्पूर्ण सत्ता पूर्ण रूप से मद मस्त। लाल बहादुर शास्त्री ने इस कथन को पूरी तरह गलत साबित कर दिखाया। १९६५ के युद्ध में भारत की विजय ने न सिर्फ १९६२ की हार के दाग को धोया बल्कि १९७१ के जीत की नीवं भी रख दी। भारत को आर्थिक आत्मनिर्भरता की प्रेरणा शास्त्री जी के जय किसान से ही मिली थी। सत्ता के शिखर की यह विनम्रता विस्मय बोध कराने के लिए पर्याप्त है। 

लोहिया एक प्रबुद्ध और प्रखर सोच वाले ठेठ देहाती। दिमागों के शहरीकरण का जिस समय भारत में बीजारोपण हो रहा था उस समय गांव , खेत-खलिहान , फावड़ा की बात करना बड़े साहस की बात रही होगी। जब पूरा भारत नेहरू के आभामण्डल से चकित - विस्मित - विस्फरित हो रहा था उसी दौरान एक व्यक्ति देश के अनगढ़ और खुरदुरी सच्चाई को चीख चीख कर बता भी रहा था और चेतनाओं को झकझोर भी रहा था बगैर किसी व्यक्तिगत ईर्ष्या या शाब्दिक अमर्यादा और कड़वाहट के। इस तिलस्म से विस्मित हो जाना मानवीय रूप से सहज है। 

जय प्रकाश - यानि वह जिसने मानवीय अभिव्यक्ति की गरिमा स्थापित की। और वह भी जन भागीदारी के माध्यम से। एक ऐसी चेतना जो उस हर राह पर चलने के लिए सदा सहर्ष तैयार रही जो मानवीयता की गरिमा को बचा बना सके। सफलता और असफलता के प्रति निरपेक्ष भाव रखते हुए। जे पी जिन्होंने आजाद भारत को पहली बार यह बताया की सत्ता व्यवस्था का समुच्चय है अतः परिवर्तन की अपेक्षा व्यवस्था में होनी चाहिए न कि सत्ता में। 

इच्छा है कि आजीवन विस्मित रहूँ इन चार मनीषियों के विचार दर्शन से। 

करुणेश 
पटना
१२। १०।२०१७




1 comment:

  1. I have gone through entire article of yr recent blog.Almost you touched every aspect of all great personalities JP,LOHIA,SHASTRI
    je,especially Gandhi also.
    Many Many Thanks.






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