Friday, 27 January 2017

गणतन्त्र

सत्ता के उत्तुंग शिखर पर 
आज राष्ट्र का गौरव गर्जन 
कितना अद्भुत वैभव दर्शन !

मत देख उधर , मत देख इधर 
नजरें बस रख तू यहीं इधर 
कस अपने शब्दों की वल्गा 
सत्ता - पोषित सारथ्य दिखा। 

सुन कर हुंकार उठी लेखनी 
मत रोक मुझे 
मत टोक मुझे 
मत मुझे दिखा तू एक तर्जनी। 
मैं मौन रहूँ या रहूँ मुखर 
पर सदा रही निष्पक्ष प्रखर।  

माना कुछ उपलब्ध हुआ 
पर सब का कहाँ प्रारब्ध हुआ। 
मैं विजय गीत फिर कैसे गाऊँ ?
विरुद - रागिनी क्यों भला बजाऊं ?

तन्त्र कहाँ स्वतंत्र हुआ ?
झुक कर देखो और बताओ 
सच में कितना गणतन्त्र हुआ। 

करुणेश 
पटना 
२७। ०१। २०१७ 

(रचना तिथि - २६। ०१। २०१७ )

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