Wednesday, 4 January 2017

प्रकाश पर्व

इन दिनों मेरे शहर पटना में प्रकाश पर्व की धूम है। सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु - गुरु गोविन्द सिंह जी की ३५०वीं जन्म तिथि प्रकाश पर्व के रूप में मनाई जा रही है। लगभग आधा पटना शहर रोशनी में डूबा है। इसी बहाने बिहार में पंजाबियत छायी है। बोल चाल , रहन सहन ,खान पान और अन्य सिक्खी परंपराएं अपने  चरम पर पटना की सड़कों पर दिख रही है। इनकी  सबसे ज्यादा धूम गांधी मैदान में बने टेंट सिटी और अशोक राजपथ से लेकर हरमंदिर साहिब तक है। सरकारी व्यस्था भी पूरी तरह चाक चौबंद है और स्थानीय नागरिकों का सहयोग भी सराहनीय। 

मुझे इस पर्व ने एक कारण दिया है यहाँ सिक्ख पंथ पर बात करने का। सबसे पहली बात जो मेरे दिमाग में आती है वह इसका नाम है - सिक्ख यानि सीख। मैं इस सीख को सीखने के अर्थ में  लेता हूँ न कि सीख यानी उपदेश के  रूप में। यदि आपने पंजाबी लोगों के जीने के तरीके को गौर से देखा है तो आप को उनकी सक्रिय और उत्पादक जीवन शैली का दीदार हुआ ही होगा। भिखारियों की भीड़ मे ये ढूंढे से  भी नहीं मिलते। ये जीवन  से ही सीखते हैं। सीखने का  इनका उपक्रम इन्हें सिक्ख बनाता है। चूँकि यह सीखने का पथ है अतः मैं इसे धर्म न कहकर पंथ कहता हूँ। 

सीखने के लिए  सिक्खों ने पुस्तक चुना - गुरु ग्रन्थ साहिब। इस पावन पुस्तक से ऊपर कुछ भी नहीं। वास्तव में इनके गुरु का निवास इस ग्रन्थ  साहिब  में होता है। इस पवित्र ग्रन्थ की जो  बात मुझे सबसे अधिक आकर्षित करती है वह है विचारों की बहुलता और उनका बहुरंगीपन। आपको इसमें कबीर और दादू तो मिलेंगे ही गुरु नानक देव जी और गुरु गोविन्द सिंह जी भी मिलेंगे। वैचारिक सह जीवन के लिए अनिवार्य उदारता का इससे बेहतर उदाहरण शायद ही कहीं और मिले। 

दूसरी बात जिसका मैं कायल हूँ वह है संगत और पंगत। किसी व्यस्था के सुचारू सञ्चालन के लिए इस से सरल सहज और सुन्दर प्रावधानों की कल्पना ही नहीं हो सकती। धार्मिक सीमाओं के परे हमें संगत और पंगत को सामाजिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। हमारे आज के  समाजिक जीवन की अनेक विषमताओं और जटिलताओ का हल जीने की इन दो विधियों में है। 

शास्त्र ज्ञान उनको प्रभावशाली बनाते हैं जो सामर्थ्यवान हों अवांछित और अनुचित के दमन और शमन के लिए। इस सिद्धान्त का श्रेष्ठ अनुपालन सिखाया गुरु गोविन्द सिह जी ने। कविता और कृपाण का ऐसा मणि कांचन  योग विश्व इतिहास में अद्भुत है और इसी लिए अविस्मरणीय भी। शक्ति के  सामर्थ्य के संरक्षण में शास्त्रों की  उपादेयता लंबे समय तक मानव जीवन को उपलब्ध हो ऐसे आशीष की  हमें कामना है।

सामाजिक जीवन में भूल सुधार  का उपाय है विनम्रता के  साथ सार्वजानिक सेवा। दंड प्रणाली के अनुपालन की अद्वेशपूर्ण व्यस्था जो न तो हिंसा  पर आधारित है और न ही प्रति हिंसा पर। साथ ही दण्डित मनुष्य न तो समाज में उपहास या अपमान का पात्र होता है और न ही अनुपुयोगी।

और अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात सिमरन यानि स्मरण। सहज शब्दों में इसे अभ्यास कह सकते हैं। अपने जीवन व्यवहार में हम अपने अर्जित ज्ञान का जितना अधिक अभ्यास करते हैं ज्ञान की उपयोगिता और उसकी प्रखरता उतनी ही बढ़ती है। खिलाड़ियों के जीवन में इस बात का महत्व सामान्यतः महत्वपूर्ण स्थान पाता है जिसके चलते  वे न सिर्फ नए शिखर छूते हैं बल्कि नए शिखर गढ़ते भी हैं। बच्चों में हमें इन गुणों  को डालने की कामना होती है लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं स्मरण या अभ्यास छोड़ते जाते हैं। परिणाम जिंदगी की जटिलताएं और समाज में विषमताएं।

संगत , पंगत,सेवा,सिमरन, -शक्ति और सामर्थ्य के भुज दंड हो तो हर मनुष्य सिक्ख है और मानवता खालिस यानि खालसा अर्थात शुद्ध। 

सच यह प्रकाशोत्सव है। सबों के लिए। सत् सिरि अकाल। 

करुणेश 
पटना 
४। १। २०१७ 

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