Tuesday, 6 December 2016

पढ़ना या पढ़ाया जाना

मैं स्कूल क्यों गया।  जबाब है पढ़ने।  मेरे बच्चे स्कूल क्यों जाते हैं।  जबाब है पढ़ने। मुझसे बड़े स्कूल क्यों गए होंगे।  जबाब यही होगा पढ़ने।  जबाब  एक ही होगा चाहे जिस से यह सवाल किया जाये। जबाब एक ही क्यों न हो आखिर सभी को एक  ही उत्तर सिखाया गया है और वो भी वर्षों से।  पीढ़ी दर पीढ़ी हमने यही जबाब सिखा  और सिखाया है। सवाल भी तो नहीं बदला है आज तक। 

अब थोड़ा रुकते हैं और इसी सवाल का जबाब गौर से दुबारा सोचते हैं।  क्या यह सच नहीं कि हम शिक्षण संस्थाओं में जाते हैं पढाये जाने , पढ़ने नहीं। न तो कोई हमें पढ़ना सिखाता है न ही कोई हमें पढ़ने देता है।  अक्षर और अंक ज्ञान की आरंभिक कक्षाओं को अपवाद मान  कर यह कथन है।  

पढाये जाने का अर्थ है दूसरे की समझ , दूसरे की सोच को समझना। शैक्षणिक  परीक्षा और परिणाम  की पूरी व्यस्था पढाये जाने के   तौर तरीकों पर पूरी तरह टिकी  है। इसमें पढ़ने का स्थान कहाँ है ? शिक्षा में भी मशीनी  उत्पादन का जुगाड़ करती है पढाये जाने की   शिक्षा व्यस्था। 

पढाये जाते रहने के क्रम में अगर कही भाग्यवश पढ़ने की समझ और संस्कार आ जाएँ तो ऐसे सवाल उठ खड़े  होते हैं।  ऐसे सवाल समाज में चिंता का कारण   नहीं बनते क्योंकि  पढ़ने की समझ के विकास के लिए हम कुछ करते ही  नहीं।   

हो सकता है कुछ लोग ऐसा भी सोचते हों कि  शायद ऐसी सोच का क्रियान्वन व्यस्था को अव्यस्था में बदल दे   कोई हिंदी की कक्षा में भूगोल का प्रश्न पूछने लगे और भौतिकी की कक्षा में कोई शेक्सपियर की बात कर बैठे।  
आखिर पढाये जाने का क्रम भंग तो होगा ही।  लेकिन पढ़ने का संस्कार यही तो है कि विषयों के अंतर्सबंध हों बजाय इसके कि हरेक विषय एकांगी विवेचना के तौर पर पढाये जाएँ।  

अभी के लिए इतना ही लेकिन पढ़ने और पढाये जाने के बारे में आप भी जरूर सोचें।  

करुणेश 
पटना 
६। १२। २०१६ 

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