Saturday, 24 December 2016

तो क्या घास काटोगे

बचपन में अपने बड़ों से बहुत बार सुना था - पढोगे लिखोगे नहीं तो क्या घास काटोगे। घास काटना , घास छिलना , घसियारा होना जैसे शब्द कर्मों के निम्नतर श्रेणी के द्योतक हुआ करते थे। कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी कि घास काटना सम्मान का कारण बन सकता है।

लेकिन ऐसा हुआ। कल एन डी टीवी के समाचार को देखते हुए मैं आश्चर्यचकित भी हुआ और प्रसन्न भी।
देहरादून के समीप किसी पंचायत ने घास काटने की एक प्रतियोगिता आयोजित की थी। प्रथम स्थान पाने वाले को एक लाख रुपये नकद और एक चाँदी का मुकुट भी मिलना था। इसके अलावा इक्यावन और इक्कीस हज़ार के द्वितीय  और तृतीय पुरस्कार भी थे। तीनों ही पुरस्कार महिलाओं को मिले। मुझे ये तो नहीं  मालूम कि पुरुषों ने इसमें हिस्सा लिया या नहीं लेकिन आयोजक तो पुरुष ही दिखे। दो मिनट में जिसने सबसे अधिक घास काटी और जिसकी घास पशु चारे के लिए सर्वाधिक उपयुक्त थी उसी आधार पर विजेता का फैसला किया गया। और इस तरह घास काटना भी सम्मान का हेतु बन गया। शायद अब कोई किसी को घसियारा या घसियारी कहने से पहले दो बार सोचे।

स्वाभाविक प्रश्न उठा कि ऐसी प्रतियोगिता की जरूरत क्यों हुई। कुछ जबाब टीवी रिपोर्ट से मिल गए। जैसे पशु चारे की उपलब्धता से होने वाली ग्रामीणों की आय के महत्व का निरूपण। सर्दियों में तेजी से बढ़ती घास के बढ़ाव का नियंत्रण एवं सार्थक उपयोग। किन्तु एक महत्वपूर्ण कारण पारिस्थितिक संतुलन (Ecological Balance) भी है। जंगलों से प्रतिदिन  कट कर आनेवाली घास भोजन श्रृंखला (Food Chain) को संतुलित रखती है। जंगली पशुओं के गांव में आने का भय कम करती है जिसके कारण वन्य प्राणियों का आहार विहार निर्बाध चलता है। गर्मियों में जंगल की आग के तेजी से फैलने का भय कम होता है। और भी कई कारण हो सकते सकते हैं जिसे परिस्थिति विज्ञानी बेहतर बता सकते हैं। लेकिन घास काटने जैसा निम्नतर समझा जाने वाला काम जीवन को बेहतर बनाने के लिए इतना उपयोगी हो सकता है इसकी समझ कल से पहले इतनी ज्यादा मुझमे कभी न रही।

प्रसिद्ध जल विज्ञानी अनुपम मिश्र का देहांत अभी पिछले सप्ताह ही हुआ है। सादगी भरे इस व्यक्तित्व को इस से बेहतर श्रधांजलि कुछ हो ही नहीं सकती कि घास काटने की प्रतियोगिता रखी जाए। वैसे यह आयोजन अनुपम मिश्र जी की याद में नहीं था लेकिन उनके सोच और  कर्मों का तार्किक विस्तार तो था ही। अच्छा हो हमारी स्मृति ऐसी घटनाओं से सजे - अनुपम मिश्र के लिए भी और देहरादून की उस पंचायत के  घसियारी महोत्सव के लिए भी।

तो क्या घास काटोगे। पढ़ने लिखने के बावजूद।

करुणेश
पटना
२४। १२। २०१६

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