Tuesday, 13 December 2016

बोल चाल

अकसर हम सुनते हैं कि मेरे कहने का मकसद यह नहीं था। आपने  गलत  अर्थ लगा लिया। हम कहना कुछ चाहते हैं और कह कुछ और देते हैं। फिर  बातों का बतंगड़ हो जाता है। कुछ बुद्धिमान किस्म के प्राणी ऐसा करते भी हैं परंतु सामान्य जान के कथनोपकथन का यह एक स्वाभाविक हिस्सा है।  

आखिर हम वही क्यों नहीं कहते जो कहना चाहते हैं। हमारे  सोचने और कहने में  इतना अंतर क्यों हो जाता है। मुझे लगता है हम शब्दों का चयन खुद को व्यक्त करने  के  लिए ढंग से नहीं कर पाते  हैं। एक कारण तो यह भी लगता है कि हमारे पास खुद को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त शब्द ही नहीं होते। ऐसा इसलिए होता है  क्योंकि बचपन से ही हम ने जिस चीज़ की सर्वाधिक उपेक्षा की है वो है  शब्द और शब्दों की  दुनिया। 
भाषा की दुनिया में शब्द  मात्र खिलौने ही तो हैं। और  शब्दों की उपेक्षा करते करते कब हम भाषा की उपेक्षा करने के अभ्यासी हो जाते हैं हमें पता भी नहीं  चलता। कितना बड़ा विरोधाभास है कि हम सुनना और समझना  चाहते हैं अच्छी  शब्दावली की भाषा लेकिन बोली के व्यहार में करते ठीक उल्टा हैं। हाँ लिखने में जरूर अधिक सावधान हो जाते हैं क्योंकि जिनके लिए हम लिखते हैं  उन तक पहुंचकर अपना मंतव्य बताना संभव नहीं होता।  अपशब्दों से भरा लेखन असामान्य है किन्तु अपशब्दों भरे कथन हमारे  दैनिक जीवन का  हिस्सा। 

बोलने में शब्दों की उपेक्षा या यूँ कहें कि भाषा की उपेक्षा को सामजिक स्वीकार्यता भी समान्यतः मिल जाती है।  कभी बचपने के तौर पर कभी हंसी मजाक के आवरण में कभी क्रोध इसका कारण होता है तो कभी अनजाने में। बोली के तौर पर भाषा की यह दुर्दशा किसी की चिंता का कारण नहीं बनती मगर सच तो यह है कि हमारी  सोच हमारी बोली के संस्कारों का आइना है। इस आईने में हम अपनी छवि देखना ही नहीं चाहते। 

एक शिष्ट व्यक्ति , एक सफल परिवार और एक सबल राष्ट्र की अनिवार्य शर्त है एक  मर्यादित बोली चाहे उसकी भाषा कोई भी हो। 

आइये हम वही कहें जो कहना चाहते हैं।     

करुणेश 
पटना 
१३। १२। २०१६ 

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