बचपन में जब हमें सादे कागज पर लिखना होता था तो कागज के बायीं ओर लगभग एक चौथाई हिस्सा खाली छोड़ देते थे जिसे चौथाई कहा भी जाता था। इसी चौथाई वाले हिस्से को हाशिया कहते हैं। आज भी सरकारी विभागों में आवेदन देते वक्त चौथाई या हाशिया छोड़ने का चलन बदस्तूर जारी है। विशेषकर न्यायलयों से सम्बंधित पत्राचार में यह प्रथा बगैर किसी अपवाद के लागू है। हाशिये पर अधिकारीगण अपना मंतव्य लिखते हैं और तदनुरूप इन पर करवाई होती है। हाशिये पर लिखने का अधिकार प्रभु संपन्न वर्ग का होता है जो आवेदनों पर अपना निर्णय मंतव्य रूप में लिखते हैं। इस तरह हाशिया वर्ग विभाजन की सीमा रेखा तय कर देता है।
विद्यालय या महाविद्यालय में प्रयोग की जाने वाली कॉपियों में सामान्यतः हाशिये को जगह मिलती है। लेकिन कॉपी के आधुनिक संस्करणों यानि भिन्न डिज़ाइनों वाली नोट बुक में हाशिये नहीं मिलते। ऐसी कॉपियां समान्यतः प्राइवेट संस्थानों के चमकते ऑफिसों में आम प्रयोग में लाई जाती हैं। चूँकि भारत के बढ़ते मध्यम वर्ग की क्रय क्षमता के इंजिन के तौर पर यही प्राइवेट संस्थान काम करते हैं इसलिए कोई अचरज की बात नहीं कि इनकी कॉपियों पर होने वाले लेखन के लिए भी हाशिये अनुपयोगी हो गए हैं और इनके जीवन में भी।
तो लब्बों लुबाब यह कि हाशिये सरकार पर आश्रित हो गए हैं। और सरकारें बढ़ते मध्यम वर्ग और उसके इंजिन पर। यह देखना दिलचस्प होगा कि हाशिया हाशिये पर कितने दिन टिक पाता है। सरकारी मेहरबानी के भरोसे । वैसे हाशिये को कागज के बड़े हिस्से पर लाने की कोशिशें भी जारी हैं। इसे मुख्य धारा में लाने की कोशिश कहा जाता है।
तो यह है हाशिये का हिस्सा यानि हाशिये का किस्सा। आप आर्थिक सामाजिक सन्दर्भों से इसे जोड़ सकते हैं लेकिन अपनी जिम्मेवारी पर। यदि चाहें तो।
करुणेश
पटना
२८। १२। २०१६
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