Friday, 23 December 2016

रोना

रोना एक जैविक क्रिया है। हँसना ,खाना ,पीना अदि की तरह। सामान्यतः किसी भी जैविक क्रिया का लिंग निर्धारण नहीं किया गया है सिवाय रोना को छोड़कर। रोना एक जनाना क्रिया माना जाता है गोया बाकि जैविक क्रियाएं मर्दाना। शायद स्त्री स्वभाव के इस विशिष्ट गुण के अधिकाधिक प्रकटीकरण के कारण ही इसे एक जनाना क्रिया माना जाता है। 

व्यक्ति अपने जीवन के भिन्न - भिन्न चरणों में भिन्न - भिन्न कारणों से रोता है। पुरुष और स्त्री दोनों अपने बचपन में कभी सकारण और कभी अकारण रोते हैं। इनके रोने का अर्थ अधिकतर माता पिता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना होता है। अपनी किशोरावस्था में इनके रोने का कारण या तो खेल कूद में लगी शारीरिक चोटें होती हैं या फिर अपने खिलौनों के  गुम होने , दूसरे को दे दिए जाने या टूट जाने या नए खिलौने लेने के लिए होती हैं। आज के सन्दर्भ में ये खिलौने न होकर कोई भी टेलीविज़न पर बहु विज्ञापित उत्पाद हो सकते हैं। 

युवावस्था में स्त्री और पुरुषों के रोने के अलग अलग कारण होते हैं। अधिकतर  पुरुष युवावस्था से रोना बंद कर देते हैं। जबकि युवतियाँ शादी के बाद होने वाली विदाई में अनिवार्यतः रोती हैं। मेरे स्वयं का यह अनुभव है की युवावस्था से ही पुरुष रोना या तो कम  कर देते हैं या बंद कर देते हैं। यदि रोते  भी हैं तो अकेले में छिपकर। 
रोना मर्दानापन पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। 

रोने का मुख्य कारण व्यक्तिगत और व्यक्ति जनित ही होता है। हम दुसरों की व्यथा से दुखी तो होते हैं , संवेदना भी प्रकट करते हैं किन्तु शायद ही कभी रोते  हों विशेषकर तब जब उस से अपना कोई व्यक्तिगत संबंध  न हो। हाँ कभी कभी फिल्में या टीवी देखते हुए आँखें तरल जरूर हो जाती हैं। ऐसी ही प्रतिक्रिया कभी कभी सुधि पाठकों को भी होती है। 

कभी कल्पना लोक में विचरते हुए क्या आपने रोने का आनंद  उठाया है। यकीन मानिये बगैर अपने आंसुओं को रोके हुए यदि अपने कभी इस क्षण का आननद उठाया हो तो आप सौभाग्यशाली हैं। वर्षा के बाद जैसे आकाश की सारी कालिमा समाप्त होकर उसे निरभ्र बना देती है ठीक वैसे ही इन क्षणों में निकले आंसू मन को निर्मल और निष्पाप कर देते हैं। कम से कम मेरी तो यही अनुभूति है। 

करुणेश 
पटना 
२३। १२। २०१६ 

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