आज से करीब दस साल पहले मनोज बाजपेयी अभिनीत एक पिक्चर आई थी शूल। हाँ वही जिसमे शिल्पा शेट्टी का प्रसिद्ध डांस सांग था - 'मैं आयी हूँ यूपी बिहार लूटने। इस पिक्चर के एक दृश्य में मनोज बाजपेयी को उसका वरीय अधिकारी यह कहते हुए एक गैरकानूनी आदेश देता है कि तुम मेरे अधीन काम करते हो। इसके जबाब में मनोज बाजपेयी का डायलाग है - ' मैं आपके अधीन नहीं बल्कि आपके साथ काम करता हूँ और हम कानून के अधीन काम करते हैं ' . यह कथन मुझे बहुत अच्छा लगता है।
हमारी सारी संस्थाएं एक पिरामिडीय (Pyramid shaped) ढांचे में काम करती हैं। अगर आप गौर से किसी पिरामिडीय संरचना को देखें तो पाएंगे की इसका आधार काफी चौड़ा होता है और जैसे - जैसे यह ऊपर की ओर बढ़ता है वैसे - वैसे इसकी चौड़ाई घटती जाती है।यांत्रिक संरचनाओं (Engineering Structures) के लिए ऐसी डिजाईन तो वैज्ञानिक हो सकती है किन्तु इंसानों को ऐसी व्यस्था में रखना इंसानों की उपयोगिता और उपादेयता के लिए अप्रभावी भी है और घातक भी। ऐसी ढांचागत संरचना में साथ काम करने का भाव सिर्फ पिरामिड के एक तल पर अवस्थित लोगों में ही होने की सम्भावना हो सकती है। यह भी काफी स्वाभाविक है कि ऊपरी या निचले तल पर काम करने वालों के बीच सोच , समझ और दृष्टि के तालमेल में भारी कमी पायी जाये। समाजिक संघर्षों का मूल बिंदु मुझे यहीं दिखाई देता है।
ऐसा भी नहीं कि पिरामिडीय आधार पर बनी समाजिक संस्थाओं ने अपनी उपयोगिता अब तक सिद्ध न की हो
लेकिन ऐसा लगता है की बढ़ती मानवीय आबादी और घटते संसाधनों (Resources) के कारण ऐसी सामाजिक संरचनाये दिनों दिन अपनी प्रभावशीलता खो रही हैं। इतना ही नहीं इन संरचनाओं में अवस्थित मानव संकुलों (Human Groups) के उच्च और निम्न तल (कभी कभी समान तल वालों के बीच भी) के लोगों के बीच संवाद सहभागिता और सहजीविता के तार उत्तरोत्तर कमजोर पड़ते जा रहे हैं।
ऐसी परिस्थिति में हमें सामाजिक संरचनाओं के नए अभिकल्पों (Designs) की कल्पना करनी होगी।
जितना जल्दी उतना बेहतर।
करुणेश
पटना
५। १२। २०१६
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