Saturday, 31 December 2016

हड़बड़ी

हड़बड़ी में  साल बीत गया। आज मुझे लगा मैं ही साल भर हड़बड़ी में रहा। साल तो अपनी ही गति से बीता। लगभग हर बीते हुए साल की यही कहानी है।

वैसे  आज कुछ ज्यादा ही हड़बड़ी है मुझे। शुभकामना संदेशों से व्हाट्सएप्प भर रहा  है। इन्हें पढ़ने की मुझे हड़बड़ी है और फिर उत्तर देने की भी। सच कहूँ तो इन का व्हाट्सएप्प सन्देश उनको भेजने की हड़बड़ी ज्यादा है। २०१७ धीरे से दस्तक देगा। मगर आदत से मजबूर मैं उसका  स्वागत भी हड़बड़ी में ही करूंगा। फिर लगेगा अब तो आ ही गया तो पूरे ३६५ दिन तो साथ रहेगा ही। चलो कम्बल तानते हैं और सो जाते हैं।

वैसे हड़बड़ी सोच का  हिस्सा सा बन गया है। बस सोने को  छोड़ हम सब कुछ हड़बड़ी में करते हैं। आँख खुलते ही हड़बड़ी हम पर सवार हो जाती है। ओफ़्फ़्फ़ इतनी देर हो गयी। चाय को फूँक मारते हुए अख़बारों केपन्ने  पलटते हैं। जल्दी जल्दी फ्रेश होते हैं। सुबह पूजा  पाठ  करने वाले भी तेज गति से दैनिक मंत्रोच्चार करते हैं। नाश्ता करते नहीं बल्कि निपटाते हैं। भागते हुए अपने कार्यस्थल पर पहुँचते हैं। और यूँ हड़बड़ी  में दिन की शुरुआत करते हैं। सामन्यतः दिन ख़तम होने के समय ही नए काम दे दिए जाते है जिन्हें हड़बड़ी में आधा अधूरा कर हम घर लौटते हैं। घर लौटते हुए कुछ हड़बड़ी हम साथ रख लेते हैं। यानि शाम में गृह प्रवेश हड़बड़ी के साथ ही होता है। यह है हड़बड़ी की महानागरीय गाथा।

छोटे शहरों में हड़बड़ी तो तब होती है जब कुछ आता या जाता है। एक साल का जाना और दूसरे का आना इन छोटे शहरों में थोड़ी हड़बड़ी लाता है। ऐसे समय में हड़बड़ी उत्सव के मोद का हिस्सा बन जाती है। हड़बड़ी इन जगहों पर बड़े शहरों के संक्रमणं के रूप में भी पदार्पण करती है। जिनके जीवन में ऐसा  होता है उन्हें इन छोटे शहरों का मॉडर्न व्यक्ति माना जाता है। जिसके पास जितनी कम हड़बड़ी वह उतना ही अधिक अमॉर्डेन।

मैं मॉडर्न और अ मौडर्न के बीच का व्यक्ति हूँ। कभी कभी हड़बड़ी में होता हूँ। जैसे आज। २०१६ के जाने और २०१७ के आने तक हड़बड़ाया रहूँगा।

वैसे तो मेरी शुभकामना सदैव आपके साथ है लेकिन हड़बड़ी में शुभकामना लेने - देने का आनंद ही कुछ और है।आप भी लुत्फ़ लें इसका। नव वर्ष की मंगलकामना।

करुणेश
पटना
३१। १२। २०१६

Thursday, 29 December 2016

जाता २०१६


जाते हुए २०१६ में तीन बातें बहुत अद्भुत हुई। पहला किसी गीतकार को नोबेल पुरस्कार मिलना। दूसरा हिलेरी क्लिंटन का अमेरिकी चुनाव हारना। तीसरा टाइम  पत्रिका के वर्ष के सर्वाधिक प्रभावशाली नेता की दौड़ में नरेंद्र मोदी का डोनाल्ड ट्रम्प से पिछड़ जाना।

यद्यपि हमारी दैनिक चर्या में गीत घुले मिले हैं विशेषकर हमारी प्रार्थनाओं में। धर्म , नस्ल और भाषा की सीमाओं के परे।सामान्यतः हम गीतकारों को तात्कालिक भावनाओं के अभिव्यक्तकर्ता के रूप में मान और महत्व देते हैं और वह भी उनकी रागात्मक अभिव्यक्तियों के लिए। २०१६ के साहित्य के नोबेल पुरस्कार का मिलना भारत के लिए इस लिए भी महत्व पूर्ण हो जाता है कि इसी बहाने रविन्द्र नाथ ठाकुर फिर से समीचिन हो जाते हैं। सुख और संतोष इस बात का भी कि  राष्ट्रभक्ति के नाम पर होने वाली गलत बहसों के लिए नहीं बल्कि अपनी गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार द्वारा  के समादृत किये जाने के  लिए याद आये।

पूर्व भारतीय राजनयिक स्वर्गीय बी के कौल की एक किताब थी - Nice Men Come Second. निश्चित तौर से डोनाल्ड ट्रम्प के मुकाबले हिलेरी ज्यादा सौम्य और शालीन थी और उनकी हार ने कौल का यह कथन साबित कर दिया। हर देश में राजनीति सच में एक जैसी ही होती है। जीतना महत्वपूर्ण है यानि पहला आने की दौड़। दौड़ में होना हारने वाले के लिए प्रेरणा और संतोष का व्यक्तिगत कारण भले ही हो मगर औरों के लिए भुला दिए जाने लायक एक घटना मात्र होती है।बगैर जीते हुए राजनीति नहीं की जा सकती। गनीमत है जिंदगी जीने के लिए जीतना आवश्यक नहीं।

और जो तीसरी घटना है उसको लिखने से पहले मेरी बायीं आँख फड़क  रही है। एक तो यह वैश्विक घटना है। फिर इसमें कूटनीति की भी सम्भावना लगती है। इसलिए ऐसी महत्वपूर्ण घटना पर लिखने से पहले लेखकीय  सावधानी के अतिरिक्त अन्य सावधानियों के प्रयोग के लिए बड़े बुज़ुर्गों के सुझाव  के  अनुरूप  इस प्रकरण पर मैं  अपनी बाई आँख को साक्ष्य मानते हुए अपने लेखन को यही विश्राम देता हूँ।

इति शुभ

करुणेश
पटना
२९। १२। २०१६ 

Wednesday, 28 December 2016

हाशिये का किस्सा

बचपन में जब हमें सादे कागज पर लिखना होता था तो कागज के बायीं ओर लगभग एक चौथाई हिस्सा खाली  छोड़ देते थे जिसे चौथाई कहा भी जाता था। इसी चौथाई वाले हिस्से को हाशिया कहते हैं। आज भी सरकारी विभागों में आवेदन देते वक्त चौथाई या हाशिया छोड़ने का चलन बदस्तूर जारी है। विशेषकर न्यायलयों से सम्बंधित पत्राचार में यह प्रथा बगैर किसी अपवाद के लागू  है। हाशिये पर अधिकारीगण अपना मंतव्य लिखते हैं  और तदनुरूप इन पर करवाई होती है। हाशिये पर लिखने का अधिकार प्रभु संपन्न वर्ग का होता है जो आवेदनों पर अपना निर्णय मंतव्य रूप में लिखते हैं। इस तरह हाशिया वर्ग विभाजन की सीमा रेखा तय कर देता है। 
विद्यालय या महाविद्यालय में प्रयोग की जाने वाली कॉपियों में सामान्यतः हाशिये को  जगह मिलती है। लेकिन  कॉपी के आधुनिक संस्करणों यानि भिन्न डिज़ाइनों वाली नोट बुक में हाशिये नहीं मिलते। ऐसी कॉपियां समान्यतः प्राइवेट संस्थानों  के चमकते ऑफिसों में आम प्रयोग में लाई जाती हैं। चूँकि भारत के बढ़ते मध्यम वर्ग की क्रय क्षमता के इंजिन के तौर पर यही प्राइवेट संस्थान  काम करते हैं इसलिए कोई अचरज की बात नहीं कि इनकी कॉपियों पर होने वाले लेखन के लिए भी हाशिये अनुपयोगी हो गए हैं और इनके जीवन में भी। 

तो लब्बों लुबाब यह कि हाशिये सरकार पर आश्रित हो गए हैं। और सरकारें बढ़ते मध्यम  वर्ग और उसके इंजिन पर। यह देखना दिलचस्प होगा कि हाशिया हाशिये पर कितने दिन टिक पाता है। सरकारी मेहरबानी के भरोसे । वैसे हाशिये को कागज के बड़े हिस्से पर लाने  की कोशिशें भी जारी हैं। इसे मुख्य  धारा में लाने की कोशिश कहा जाता है। 

तो यह है हाशिये का हिस्सा यानि हाशिये का किस्सा। आप आर्थिक सामाजिक सन्दर्भों से इसे जोड़ सकते हैं लेकिन अपनी जिम्मेवारी पर। यदि चाहें तो। 

करुणेश 
पटना 
२८। १२। २०१६ 



Monday, 26 December 2016

Let Me Think This Way

Other than materialistic belongings what else are required necessarily to live our lives. I think these are human  inborn traits with which we grow and lead our life. These are very common to all of us and are found among all personalities invariably though the degree of it varies person to person.We know, sense, realise and feel these traits in our daily lives.These are love,affection,hatred,jealousy,truth,falseness,tolerance,anger,austerity,prosperity,sympathy,compassion,misery and many more. Without entering into the argument of bracketing these into virtues and vices does this not stand to logic that all these human traits are necessarily required for our lives irrespective of the popular meaning they stand for.

Let us just imagine that all 125 billion Indians become truthful let's say tomorrow what will be the situation. First of all is it possible? But more important than this, is it necessary to make it possible? I do not think it can happen ever and ever must not it happen also. So will be the situation if all of us are filled with anger or tolerance or hatred or love or any such other trait. You may disagree to agree to this. My reason to this is very simple. It will be serious threat to our own existence because one can not separate the two sides of the coin.   

OK I have presented a bigger canvass.Now let me put this to our daily lives.We say good morning with love but finding the kids in bed even though we lose our tolerance.We are truthful to our family and backbite our colleagues and friends for our own benefits at workplace in the noon. By the evening we are angry on the government and system while in a jam or queuing an ATM and late night we become affectionate and compassionate. The seriality of this may change person to person and also the exhibits of traits as well as the degree of it but more or less this is how our lives complete the life clock.  

What does this prove? To me this proves that all of the traits are essentially required for our persona.The adjective of VIRTUE & VICE only specify the degree of it. So let us live with it.

Karunesh
Patna
26.12.2016

Saturday, 24 December 2016

तो क्या घास काटोगे

बचपन में अपने बड़ों से बहुत बार सुना था - पढोगे लिखोगे नहीं तो क्या घास काटोगे। घास काटना , घास छिलना , घसियारा होना जैसे शब्द कर्मों के निम्नतर श्रेणी के द्योतक हुआ करते थे। कभी ऐसी कल्पना नहीं की थी कि घास काटना सम्मान का कारण बन सकता है।

लेकिन ऐसा हुआ। कल एन डी टीवी के समाचार को देखते हुए मैं आश्चर्यचकित भी हुआ और प्रसन्न भी।
देहरादून के समीप किसी पंचायत ने घास काटने की एक प्रतियोगिता आयोजित की थी। प्रथम स्थान पाने वाले को एक लाख रुपये नकद और एक चाँदी का मुकुट भी मिलना था। इसके अलावा इक्यावन और इक्कीस हज़ार के द्वितीय  और तृतीय पुरस्कार भी थे। तीनों ही पुरस्कार महिलाओं को मिले। मुझे ये तो नहीं  मालूम कि पुरुषों ने इसमें हिस्सा लिया या नहीं लेकिन आयोजक तो पुरुष ही दिखे। दो मिनट में जिसने सबसे अधिक घास काटी और जिसकी घास पशु चारे के लिए सर्वाधिक उपयुक्त थी उसी आधार पर विजेता का फैसला किया गया। और इस तरह घास काटना भी सम्मान का हेतु बन गया। शायद अब कोई किसी को घसियारा या घसियारी कहने से पहले दो बार सोचे।

स्वाभाविक प्रश्न उठा कि ऐसी प्रतियोगिता की जरूरत क्यों हुई। कुछ जबाब टीवी रिपोर्ट से मिल गए। जैसे पशु चारे की उपलब्धता से होने वाली ग्रामीणों की आय के महत्व का निरूपण। सर्दियों में तेजी से बढ़ती घास के बढ़ाव का नियंत्रण एवं सार्थक उपयोग। किन्तु एक महत्वपूर्ण कारण पारिस्थितिक संतुलन (Ecological Balance) भी है। जंगलों से प्रतिदिन  कट कर आनेवाली घास भोजन श्रृंखला (Food Chain) को संतुलित रखती है। जंगली पशुओं के गांव में आने का भय कम करती है जिसके कारण वन्य प्राणियों का आहार विहार निर्बाध चलता है। गर्मियों में जंगल की आग के तेजी से फैलने का भय कम होता है। और भी कई कारण हो सकते सकते हैं जिसे परिस्थिति विज्ञानी बेहतर बता सकते हैं। लेकिन घास काटने जैसा निम्नतर समझा जाने वाला काम जीवन को बेहतर बनाने के लिए इतना उपयोगी हो सकता है इसकी समझ कल से पहले इतनी ज्यादा मुझमे कभी न रही।

प्रसिद्ध जल विज्ञानी अनुपम मिश्र का देहांत अभी पिछले सप्ताह ही हुआ है। सादगी भरे इस व्यक्तित्व को इस से बेहतर श्रधांजलि कुछ हो ही नहीं सकती कि घास काटने की प्रतियोगिता रखी जाए। वैसे यह आयोजन अनुपम मिश्र जी की याद में नहीं था लेकिन उनके सोच और  कर्मों का तार्किक विस्तार तो था ही। अच्छा हो हमारी स्मृति ऐसी घटनाओं से सजे - अनुपम मिश्र के लिए भी और देहरादून की उस पंचायत के  घसियारी महोत्सव के लिए भी।

तो क्या घास काटोगे। पढ़ने लिखने के बावजूद।

करुणेश
पटना
२४। १२। २०१६

Friday, 23 December 2016

रोना

रोना एक जैविक क्रिया है। हँसना ,खाना ,पीना अदि की तरह। सामान्यतः किसी भी जैविक क्रिया का लिंग निर्धारण नहीं किया गया है सिवाय रोना को छोड़कर। रोना एक जनाना क्रिया माना जाता है गोया बाकि जैविक क्रियाएं मर्दाना। शायद स्त्री स्वभाव के इस विशिष्ट गुण के अधिकाधिक प्रकटीकरण के कारण ही इसे एक जनाना क्रिया माना जाता है। 

व्यक्ति अपने जीवन के भिन्न - भिन्न चरणों में भिन्न - भिन्न कारणों से रोता है। पुरुष और स्त्री दोनों अपने बचपन में कभी सकारण और कभी अकारण रोते हैं। इनके रोने का अर्थ अधिकतर माता पिता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना होता है। अपनी किशोरावस्था में इनके रोने का कारण या तो खेल कूद में लगी शारीरिक चोटें होती हैं या फिर अपने खिलौनों के  गुम होने , दूसरे को दे दिए जाने या टूट जाने या नए खिलौने लेने के लिए होती हैं। आज के सन्दर्भ में ये खिलौने न होकर कोई भी टेलीविज़न पर बहु विज्ञापित उत्पाद हो सकते हैं। 

युवावस्था में स्त्री और पुरुषों के रोने के अलग अलग कारण होते हैं। अधिकतर  पुरुष युवावस्था से रोना बंद कर देते हैं। जबकि युवतियाँ शादी के बाद होने वाली विदाई में अनिवार्यतः रोती हैं। मेरे स्वयं का यह अनुभव है की युवावस्था से ही पुरुष रोना या तो कम  कर देते हैं या बंद कर देते हैं। यदि रोते  भी हैं तो अकेले में छिपकर। 
रोना मर्दानापन पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। 

रोने का मुख्य कारण व्यक्तिगत और व्यक्ति जनित ही होता है। हम दुसरों की व्यथा से दुखी तो होते हैं , संवेदना भी प्रकट करते हैं किन्तु शायद ही कभी रोते  हों विशेषकर तब जब उस से अपना कोई व्यक्तिगत संबंध  न हो। हाँ कभी कभी फिल्में या टीवी देखते हुए आँखें तरल जरूर हो जाती हैं। ऐसी ही प्रतिक्रिया कभी कभी सुधि पाठकों को भी होती है। 

कभी कल्पना लोक में विचरते हुए क्या आपने रोने का आनंद  उठाया है। यकीन मानिये बगैर अपने आंसुओं को रोके हुए यदि अपने कभी इस क्षण का आननद उठाया हो तो आप सौभाग्यशाली हैं। वर्षा के बाद जैसे आकाश की सारी कालिमा समाप्त होकर उसे निरभ्र बना देती है ठीक वैसे ही इन क्षणों में निकले आंसू मन को निर्मल और निष्पाप कर देते हैं। कम से कम मेरी तो यही अनुभूति है। 

करुणेश 
पटना 
२३। १२। २०१६ 

Saturday, 17 December 2016

भूंजा , खिचड़ी और शनिचर

तब जब अधिकांश लोग स्वरोजगार में या कृषि कार्य में रत होते थे तब भूंजा शनिचर की याद दिलाता था। वैसे उन दिनों गांवों में वीक एन्ड के प्रचलन की सम्भावना एकदम ही नहीं होगी लेकिन शनिचर को ही भूंजा  दिन क्यों माना गया। अगर वीक एन्ड को आज के शहरी  सभ्यता के विकास का एक चिह्न माने तो इस लिहाज से भूंजा का शनिचर के साथ सम्बन्ध का क्रेडिट बिहार को देना बनता है। 

आज का भूंजा पहले के भड़ भूंजा का परिवर्धित एवं संशोधित  संस्करण है।  बचपन में खाये हुए भुंजे का सोंधापन आज के शहरी भुंजे में नहीं मिलता। भूंजा के मुख्य घटक होते थे चावल , चना , और मकई। सामान्यतः मूढ़ी और चूड़ा भूंजा  का हिस्सा पहले नहीं होता था। इस भुंजे की खास बात ये थी कि बच्चे इसे खेलते भागते खाते थे और बड़े मिल बैठकर। भूंजा खाने की गंवई संस्कृति शहरों में आ तो गयी पर छूट गया बच्चों का खेलते भागते खाना और बड़ों का मिल बैठना। लोग अब पहले से से ज्यादा संस्कारित हो गए हैं। 

शनिचर का दूसरा लोक नाम खिचड़ी भी है। खिचड़ी बनाना खाना दोनों आसान। कहते हैं खिचड़ी के चार यार - चोखा ,चटनी ,घी,अचार। समय के साथ इसके यारों की संख्या बढ़ गयी जैसे पापड़ ,तिलौरी ,दनौरी आदि। ठण्ड के दिन की खिचड़ी कुछ अधिक ही स्वाद देती है। खिचड़ी में आलू और भंटा (गोल बैंगन ) के चोखा के सिवा और कोई चोखा नहीं बनता। 

कहते हैं शनिचर नामक एक ग्रह है जो व्यक्ति के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। ऐसा सामान्यतः सारे ज्योतिषी मानते हैं।  ऐसी मान्यता है कि  मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन काल में कम  से कम  एक बार शनिचर मनुष्य की परीक्षा जरूर लेता है। और वो भी बड़े क्रूर और निर्दयी ढंग से। शायद यही कारण है कि सामान्य बोल चाल में हम शनिचरा शब्द का प्रयोग शनिचर से ज्यादा करते हैं। आखिर  छात्रों में परीक्षक के प्रति कुछ तो आक्रोश होगा। इस दिन खान पान भी शायद इसीलिए इतना सादा सादा है। परीक्षा और परीक्षक बच्चों और बड़ों दोनों को समान  रूप से अच्छे नहीं लगते। 

करुणेश
पटना
१७। १२। २०१६  

Friday, 16 December 2016

If अगर But लेकिन What माने क्या

If यानि यदि संसद चलता तो क्या होता। संसद में थोड़ा  शोर कम  होता तथ्य तब भी गुल होते । कम से कम दोनों सदनों के स्पीकर को काम करने का अवसर मिलता। नोटबंदी पर दावे प्रतिदावे होते। आम आदमी (पार्टी नहीं) को दोनों ही पक्षों में कुछ कुछ बातें सही लगती।हम कुछ ज्यादा ही कन्फुजियाये होते। विशेषकर भिन्न चैंनलों की प्राइम टाइम देखते हुए। हो सकता था एक आध  जेपीसी बनती। उनके काम करने की समय सीमा निश्चित की जाती। कुछ विधायी कार्य संपन्न होते। भिन्न प्रकार की वितीय मांगों को सदन में रखा जाता और ध्वनिमत से उन्हें पारित किया जाता। ईमानदारी ,शुचिता और देशभक्ति की बाते होतीं। मैले कुर्ते वाले दूसरों के कुर्ते को ज्यादा मैला बताने के लिए अपना ज्ञान कोष प्रदर्शित करते। 

But यानि लेकिन संसद नहीं चली।कौन सा आसमान टूट पड़ा।काम मिलना बंद हो गया तो मजदूर घरों को लौट गए। ऑफिस के बजाय एटीएम और बैंकों में लोगों की उपस्थिति बढ़ गयी। एटीएम ने कम  काम  किया। जिस देस में लोग वर्षों से काम न करने के  आदि हों वहां आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस से लैस एटीएमों के कम काम करने के बावजूद लोगों की व्यस्था में  श्रद्धा यथावत रही। सांसद अच्छी अच्छी बातें करते रहे। हम रात का प्राइम टाइम न्यूज़ कम्बल ओढ़कर देखते रहे और कहा उफ़ इस साल बड़ी ठण्ड है। 

तो What माने क्या।मेरे जैसा बुद्धु कहे  भी तो क्या। आप कुछ कहना चाहते हैं क्या ? कहने से पहले सोच लीजियेगा। If यदि But लेकिन का जबाब है न आपके पास। यदि नहीं है तो कहिये what माने क्या !!!!!!!!!
करुणेश 
पटना 
१६। १२। २०१६ 












Thursday, 15 December 2016

दुर्योधन के प्रश्न

बगैर किसी आग्रह , दुराग्रह या पूर्वाग्रह के मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूँ। वैसे तो दुर्योधन के प्रश्न का  विभिन्न लोगों ने भिन्न - भिन्न तरीकों से उत्तर दे ही दिया है वेद व्यास , भीष्म और कृष्ण समेत फिर भी ये प्रश्न आज भी अक्सर ही सर उठाते हैं। यही कारण है कि ये प्रश्न  आज भी प्रासंगिक और सामायिक हैं और इसीलिए विचारणीय भी। आइये इन प्रश्नों पर गौर करते हैं। 

प्रश्न संख्या एक - क्या पिता का यह अधिकार नहीं कि वह अपनी मर्जी से अपने वैध जैविक पुत्र को अपना  उत्तराधिकारी चुन सके। जैविक पुत्र के योग्यता का निर्धारण उसका पिता करेगा या कोई और। पैतृक उत्तराधिकार के सम्बन्ध में। 

प्रश्न संख्या दो - यदि किसी  कुल की कोई स्त्री (जैसे कि कुंती और माद्री) पति के जीवित रहते, बेशक उसकी सहमति से, अन्य पुरुष के संसर्ग से संतानवती हों तो क्या ऐसी परिस्थिति में ऐसी संतानें उन स्त्रियों के पति  कुल का अंश मानी जाएँगी और क्या पति  कुल की संपत्ति  पर उनका कोई वैधानिक  अधिकार भी होगा। 

प्रश्न संख्या तीन - पुरुष की मर्यादाहीनता और अशिष्ट भाषण का दंड तो मृत्यु भी हो सकता है किन्तु स्त्री की मर्यादाहीनता और अशिष्ट भाषण का दंड क्या हो। याद करें द्रौपदी स्वयंवर में द्रौपदी द्वारा कर्ण का अपमान और इंद्रप्रस्थ के माया महल में द्रौपदी द्वारा दुर्योधन का अपमान। स्त्री को मनुष्येतर मानने की सामाजिक जिद कहाँ तक उचित है। 

पुस्तकीय नैतिकता के धरातल पर इन प्रश्नों के उत्तर कई बार दिए जा चुके हैं। व्यहार के स्तर पर आज के सन्दर्भ में ये प्रश्न अभी भी अनुत्तरित हैं। सामाजिक नैतिकता के स्तर पर भी और व्यक्तिगत नैतिकता के स्तर पर भी।

करुणेश 
पटना
१५। १२। २०१६


Tuesday, 13 December 2016

बोल चाल

अकसर हम सुनते हैं कि मेरे कहने का मकसद यह नहीं था। आपने  गलत  अर्थ लगा लिया। हम कहना कुछ चाहते हैं और कह कुछ और देते हैं। फिर  बातों का बतंगड़ हो जाता है। कुछ बुद्धिमान किस्म के प्राणी ऐसा करते भी हैं परंतु सामान्य जान के कथनोपकथन का यह एक स्वाभाविक हिस्सा है।  

आखिर हम वही क्यों नहीं कहते जो कहना चाहते हैं। हमारे  सोचने और कहने में  इतना अंतर क्यों हो जाता है। मुझे लगता है हम शब्दों का चयन खुद को व्यक्त करने  के  लिए ढंग से नहीं कर पाते  हैं। एक कारण तो यह भी लगता है कि हमारे पास खुद को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त शब्द ही नहीं होते। ऐसा इसलिए होता है  क्योंकि बचपन से ही हम ने जिस चीज़ की सर्वाधिक उपेक्षा की है वो है  शब्द और शब्दों की  दुनिया। 
भाषा की दुनिया में शब्द  मात्र खिलौने ही तो हैं। और  शब्दों की उपेक्षा करते करते कब हम भाषा की उपेक्षा करने के अभ्यासी हो जाते हैं हमें पता भी नहीं  चलता। कितना बड़ा विरोधाभास है कि हम सुनना और समझना  चाहते हैं अच्छी  शब्दावली की भाषा लेकिन बोली के व्यहार में करते ठीक उल्टा हैं। हाँ लिखने में जरूर अधिक सावधान हो जाते हैं क्योंकि जिनके लिए हम लिखते हैं  उन तक पहुंचकर अपना मंतव्य बताना संभव नहीं होता।  अपशब्दों से भरा लेखन असामान्य है किन्तु अपशब्दों भरे कथन हमारे  दैनिक जीवन का  हिस्सा। 

बोलने में शब्दों की उपेक्षा या यूँ कहें कि भाषा की उपेक्षा को सामजिक स्वीकार्यता भी समान्यतः मिल जाती है।  कभी बचपने के तौर पर कभी हंसी मजाक के आवरण में कभी क्रोध इसका कारण होता है तो कभी अनजाने में। बोली के तौर पर भाषा की यह दुर्दशा किसी की चिंता का कारण नहीं बनती मगर सच तो यह है कि हमारी  सोच हमारी बोली के संस्कारों का आइना है। इस आईने में हम अपनी छवि देखना ही नहीं चाहते। 

एक शिष्ट व्यक्ति , एक सफल परिवार और एक सबल राष्ट्र की अनिवार्य शर्त है एक  मर्यादित बोली चाहे उसकी भाषा कोई भी हो। 

आइये हम वही कहें जो कहना चाहते हैं।     

करुणेश 
पटना 
१३। १२। २०१६ 

Monday, 12 December 2016

ऐसे ही

ऐसे ही अगर जिंदगी चल सकती है तो लिखा क्यों नहीं जा सकता। ऐसे ही अगर कुछ कहा जा सकता है तो फिर लिखने में क्या दिक्कत है। ऐसे ही अगर  कुछ भी सोचा जा सकता है तो लिखने में ऐसी कौन सी समस्या है।  
है मेरे दोस्त लिखने में समस्या है और हो रही है इस वक्त मुझे। आप पूछेंगे तो लिखने की जरूरत क्या है ? क्या किसी डॉक्टर ने कहा है कि  आज लिखना जरूरी है। नहीं ऐसा कुछ भी नहीं लेकिन लिखना आदत में रहे इसलिए बस ऐसे ही लिख रहा हूँ।  
कुछ चीजों की आदत रहे तो अच्छा रहता है। एक दिन  का भी विराम नहीं लिखने की आदत का कारण बन सकता है। मेरा मन मेरे काबू में नहीं रहता ये मैं जनता हूँ और इसलिए मैं उसे कल कोई बहाना नहीं देना चाहता कि वो मुझे याद करा सके कि  कल वो मुझे आज नहीं लिखने का तर्क दे और  लिखने से रोक सके या रोकने की चेष्टा भी कर सके।  
काश ऐसे ही मन के कुछ और  कहने के बावजूद  पहले भी कुछ ऐसा ही किया होता। बस ऐसे ही।  
करुणेश 
पटना
१२। १२। २०१६


Friday, 9 December 2016

दुविधा की सुविधा

महान लोग संकल्पों के साथ जीते हैं और आम लोग विकल्पों के साथ। बोलचाल की भाषा में विकल्पों का ही दूसरा नाम दुविधा है। विकल्प यदि संज्ञा है तो दुविधा उसका विशेषण।  

दुविधा में जीने का मजा ही कुछ और है। दुविधा की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसे कोई भी स्वीकार नहीं करता। लेकिन इसके साथ जीते सभी हैं।  हम होते कुछ हैं , कहते कुछ हैं और करते कुछ और ही हैं। इतना ही नहीं समय , स्थान ,परिस्थिति और व्यक्तियों के बदलते ही  यह कुछ भी बहुत कुछ बदल जाता है। अब आप ही बताएं  यदि Change is the only constant सही है तो दुविधा में जीना सहज और स्वाभाविक।

दुविधा का अर्थ लोक स्वरुप में केवल दो विकल्पों  का होना ही नहीं होता। बल्कि कई विकल्पों में एक चुनने की आजादी का अर्थ  दुविधा में है। अक्सर ही हम एक साथ एक से अधिक विकल्पों का प्रयोग करते हैं। और इस तरह हम दुविधा की सुविधा का   भरपूर आनंद उठाते हैं। 

हमारे सामने सामान्यतः इतने विकल्प होते हैं कि दुविधा को चुनने में भी दुविधा हो जाती है। कुछ प्रचलित विकल्प इस प्रकार हैं - सच , सच नहीं , झूठ , झूठ नहीं, सही, सही नहीं , गलत , गलत नहीं आदि आदि। 

दुविधा का विशेषज्ञता से इस्तेमाल दो लोग धड़ल्ले से करते हैं।  एक राजनेता  दूसरे धर्म गुरु। चूँकि इनका प्रभाव सामान्य जन जीवन पर सर्वाधिक होता है अतएव कोई अचरज नहीं जो सामान्य जन  दुविधा के सुविधाभोगी हो गए हैं। 

करुणेश 
पटना
९। १२। २०१६

Thursday, 8 December 2016

लिखने की आसानी

लिखना अब कितना आसान हो गया है। मोबाइल हो या  कंप्यूटर किसी भी भाषा में तकनीक ने लिखना बिलकुल ही सरल और सुविधाजनक बना दिया है। अब न तो अपनी हैंडराइटिंग के सुपाठ्य होने और सुन्दर होने की किसी को फ़िक्र होती है न ही वर्तनी के शुद्ध या अशुद्ध होने की चिंता। तकनीक ने सबको लेखक होने का एक समान अवसर उपलब्ध करा दिया है। और इसी लिए इन्टरनेट पर आजकल लिखकड़ों की भरमार हो गयी है।  अब तो पढ़ने वाले  सही मायने में इस दुनिया के अल्पसंख्यक हो गए हैं। अरे अल्पसंख्यक ही क्यों ये तो  विलुप्त प्राणियों की श्रेणी के बहुत करीब हैं यदि इनकी संख्या को आधार माना जाये। 

अज्ञेय ने एक बार कहा था कि मनुष्य उतना ही धनी होता है जितने उसके पास शब्द होते हैं। शब्दों का भंडार  पढ़ने से होता है। लेकिन पढ़ने की ऐसी कोई तकनीक तो  अब तक ईजाद हुई नहीं कि सौ दो सौ पन्नों की किताब बगैर एक एक पन्ना पलटे  हुए पढ़ ली जाये।  पढ़ने के साथ एक और शर्त लागू  है और वो है समझना।  अब भला तकनीक समझने को कैसे समझाए।  

इसलिए लोग पढ़े - लिखे की जगह मात्र लिखे रह गए हैं। वो भी खुद के लिए नहीं दुसरो के लिए।  लेकिन दुर्भाग्य देखिये वो भी कोई नहीं पढता।   

करुणेश
पटना
८। १२। २०१६ 

Wednesday, 7 December 2016

Jig Shaw Puzzle

Country and its countrymen are two different entities. Ethics of a nation revolves around its security, sovereignty and futuristic well being of its citizens.The central idea of a nation's foreign policy is primarily enhancing its own strength and well being. Other nations associating or otherwise with them play only the role of tools & devices for the achievement of its goal. More often than not, therefore, it is conflicting and contradictory. In the process each nation , this way or that way, is performing both the roles to one another. All partying nations of an international alliance tries to build a maximum fit with minimum compromises.

Post world war II colonialism has almost ended all over the world. Plenty of international forums have emerged to meet the objective of regional balance,trade & commerce, strategic & military needs, science & technology and environment & climate control.

Weapons and military strength of a nation is now not for the purpose of war but also for trade. Nothing wrong to say that growth of some economies and the economic muscle acquired to certain nations are outcome of military economics only.The manure of military economics is imbalance & unrest which is first created then developed and taken to a height and then to control & manage military economics is used. It is a world wide phenomena and all nations are happy participant to it either as a victim or as a doer.

Now let me mix all the above paragraphs as cardboard pieces and a Jig Shaw Puzzle is ready. The fun is not in solving but playing with it and please read the calender of events below.

Peoples Republic of China did not offer red carpet welcome to Mr. Barak Obama the US President on his arrival at an International event being held there early this year contrary to other participating premiers such as of India & Pakistan.

PM Narendra Modi mentions unrest and rebel of Balochistan in his Independence Day speech from Red Fort this year.

A massive terrorist attack in the wee hours at Uri (J & K ) on an Indian military post on 18th September 2016 .

Addressing the United Nations General Assembly External Affairs Minister Ms. Sushma Swaraj on 26th September 2016 critically condemns the role of Pakistan government and its machinery in the fight against terror.

Indian military carries out a massive strike termed as Surgical Strike on terrorist camps located on the other side of the line of control the POK on 29th September 2016. India's Director General of Military Operation for the first time acknowledged this publicly claiming it to be devastating for the terrorists. Pakistan preferred to lie low and denied Indian claims.

Most SAARC nations withdraw themselves from attending the 19th summit to be held at Islamabad (Pakistan) on 15th/16th November 2016 referring growing terror in the region and the political climate not being amicable for the summit.

Russia Federal Security Service Chief Alexander Bogdanov in early November 2016 visits Gwadar the port city of Balochistan in Pakistan which connects the city of Xinjinag, the autonomous region of China through CPEC (China Pakistan Economic Corridor) to explore possibilities of Russian co operation to this joint venture for their access to Europe and other neighboring nations. (Source:Newspaper reports and web articles)

PM Narendra Modi announces Currency Demonetisation on 8th Dec 2016 explaining its need to meet one of its objective to kill the terror financing by way of counterfeit Indian currency.Economist predicts slowing down of Indian economy for at least 1-2 years.

13th November 2016 China uses for the first time the roadways link of CPEC to reach from Gwadar to Xinjiang 

2nd Dec 2016 China uses for the first time the rail link of CPEC 

(This should be read in the perspective that China used its veto against India for its membership claim in UN security council. It should also be noted that the some portion of CPEC road and rail ways passes through disputed Indo-Pak territories)

New US President elect Mr Donald Trump talks to his Taiwan counterpart over phone on 5th Dec 2016.Important to note that China has invariably questioned the sovereignty of Taiwan and posted its claim on this tiny nation.

The Jig Shaw Puzzle is now ready for you.

Ponder it or play with it. It is your choice.

Karunesh
Patna
7/12/2016







Tuesday, 6 December 2016

पढ़ना या पढ़ाया जाना

मैं स्कूल क्यों गया।  जबाब है पढ़ने।  मेरे बच्चे स्कूल क्यों जाते हैं।  जबाब है पढ़ने। मुझसे बड़े स्कूल क्यों गए होंगे।  जबाब यही होगा पढ़ने।  जबाब  एक ही होगा चाहे जिस से यह सवाल किया जाये। जबाब एक ही क्यों न हो आखिर सभी को एक  ही उत्तर सिखाया गया है और वो भी वर्षों से।  पीढ़ी दर पीढ़ी हमने यही जबाब सिखा  और सिखाया है। सवाल भी तो नहीं बदला है आज तक। 

अब थोड़ा रुकते हैं और इसी सवाल का जबाब गौर से दुबारा सोचते हैं।  क्या यह सच नहीं कि हम शिक्षण संस्थाओं में जाते हैं पढाये जाने , पढ़ने नहीं। न तो कोई हमें पढ़ना सिखाता है न ही कोई हमें पढ़ने देता है।  अक्षर और अंक ज्ञान की आरंभिक कक्षाओं को अपवाद मान  कर यह कथन है।  

पढाये जाने का अर्थ है दूसरे की समझ , दूसरे की सोच को समझना। शैक्षणिक  परीक्षा और परिणाम  की पूरी व्यस्था पढाये जाने के   तौर तरीकों पर पूरी तरह टिकी  है। इसमें पढ़ने का स्थान कहाँ है ? शिक्षा में भी मशीनी  उत्पादन का जुगाड़ करती है पढाये जाने की   शिक्षा व्यस्था। 

पढाये जाते रहने के क्रम में अगर कही भाग्यवश पढ़ने की समझ और संस्कार आ जाएँ तो ऐसे सवाल उठ खड़े  होते हैं।  ऐसे सवाल समाज में चिंता का कारण   नहीं बनते क्योंकि  पढ़ने की समझ के विकास के लिए हम कुछ करते ही  नहीं।   

हो सकता है कुछ लोग ऐसा भी सोचते हों कि  शायद ऐसी सोच का क्रियान्वन व्यस्था को अव्यस्था में बदल दे   कोई हिंदी की कक्षा में भूगोल का प्रश्न पूछने लगे और भौतिकी की कक्षा में कोई शेक्सपियर की बात कर बैठे।  
आखिर पढाये जाने का क्रम भंग तो होगा ही।  लेकिन पढ़ने का संस्कार यही तो है कि विषयों के अंतर्सबंध हों बजाय इसके कि हरेक विषय एकांगी विवेचना के तौर पर पढाये जाएँ।  

अभी के लिए इतना ही लेकिन पढ़ने और पढाये जाने के बारे में आप भी जरूर सोचें।  

करुणेश 
पटना 
६। १२। २०१६ 

Monday, 5 December 2016

शूल सिनेमा के बहाने

आज से करीब दस साल पहले मनोज बाजपेयी अभिनीत एक पिक्चर आई थी शूल।  हाँ वही जिसमे शिल्पा शेट्टी का प्रसिद्ध डांस सांग था - 'मैं आयी हूँ यूपी बिहार लूटने। इस पिक्चर  के एक दृश्य में मनोज बाजपेयी को उसका वरीय अधिकारी यह कहते हुए एक गैरकानूनी आदेश देता है कि तुम मेरे अधीन काम करते हो।  इसके जबाब में मनोज बाजपेयी का डायलाग है - ' मैं आपके अधीन नहीं बल्कि आपके साथ काम करता हूँ और हम कानून के अधीन काम करते हैं ' .  यह कथन मुझे बहुत अच्छा लगता है।

हमारी सारी संस्थाएं एक पिरामिडीय (Pyramid shaped) ढांचे में काम करती हैं।  अगर आप गौर से किसी   पिरामिडीय संरचना को  देखें तो पाएंगे की इसका आधार काफी चौड़ा होता है और  जैसे - जैसे यह ऊपर की ओर बढ़ता है वैसे - वैसे इसकी चौड़ाई घटती  जाती  है।यांत्रिक संरचनाओं (Engineering Structures) के लिए ऐसी डिजाईन तो वैज्ञानिक हो सकती है किन्तु इंसानों को ऐसी  व्यस्था में रखना इंसानों की उपयोगिता और उपादेयता के लिए  अप्रभावी भी है और घातक भी।  ऐसी ढांचागत संरचना में  साथ काम करने का भाव सिर्फ पिरामिड के एक तल पर अवस्थित लोगों में ही होने की सम्भावना हो सकती है।  यह भी काफी स्वाभाविक है कि  ऊपरी या निचले तल  पर काम करने वालों के बीच सोच , समझ और दृष्टि के तालमेल में भारी  कमी पायी जाये। समाजिक संघर्षों का मूल बिंदु मुझे यहीं दिखाई देता है। 

ऐसा भी नहीं कि  पिरामिडीय आधार पर बनी  समाजिक  संस्थाओं  ने अपनी उपयोगिता अब तक सिद्ध न की हो        
लेकिन ऐसा लगता है की बढ़ती मानवीय आबादी और घटते संसाधनों (Resources) के कारण ऐसी सामाजिक संरचनाये दिनों दिन अपनी प्रभावशीलता खो रही हैं। इतना ही नहीं इन संरचनाओं में अवस्थित मानव संकुलों (Human Groups) के उच्च और निम्न तल (कभी कभी  समान तल वालों के बीच  भी) के लोगों के  बीच संवाद सहभागिता और सहजीविता के तार उत्तरोत्तर कमजोर पड़ते जा रहे हैं। 

ऐसी परिस्थिति में हमें सामाजिक संरचनाओं के नए अभिकल्पों (Designs) की कल्पना करनी होगी।  

जितना जल्दी उतना बेहतर।  

करुणेश 
पटना 
५। १२। २०१६  

Friday, 2 December 2016

Consensus

There are certain ideas in the world such as of truth , non violence , equality , fraternity & brotherhood , sanity , purity and many more to which there is a universal acceptance cutting across all boundaries such as region,religion,race,caste,creed & nation. This acceptance remains universal till it is in the form of an idea.Once these are practiced there is always a view and counter view (often called to be the opposite view) to the practice of it. It loses the universality of acceptance.

Perhaps it is this point where we look for maximum acceptance generally termed to be consensus.

Democracy the large accepted form of governance across the world today prefers to derive/arrive consensus on almost all the issues. Democracy also proclaims to work for the larger good. It shall be,though, a matter of debate whether the derived/arrived consensus is conscious or not. Or the consensus formed on an issue is going to serve a larger good. Parliamentary democracy provides the forum and the way for it i.e. through debate at the floor of house.

This winter session Indian Parliament session is though in progress yet at halt. Reason being the opposition wants debate under rule 193 and BJP the ruling party refuses it though enjoying absolute majority in Lok Sabha.Opposition enjoys majority in Rajya Sabha. The speaker of both the houses are adjourning the house since a week or more on demonetization.

Definitely each political party of both the houses have a valid point to speak on demonetization. At least here seems a consensus.

Then what is stopping the speaker for debate. My little mind says it is ego and revenge.

I am afraid if the political institutions (Read political parties and Parliament) have such silly reason such as under which rule the debate should take place, for not reaching the consensus.
How the democracy will get practiced in a family which is the smallest unit of  institution in our society. After all it is the Indian families only getting mirrored in the parliament.

Be scared.

Consensus, O Consensus! please reach soon.

Karunesh
Patna
2nd Dec 2016


Thursday, 1 December 2016

प्रश्नों का मूल्यांकन

प्रश्नों का आधार क्या होता है - कौतुहल , जिज्ञासा , समस्याओं  के समाधान की कोशिश या समस्याओं का उत्तर।  बचपन से ये बताया गया कि जिसे आप नहीं जानते या जिसे जानने की जरूरत हो उसे जानने के लिए प्रश्न पूछने होते हैं. अर्थात अज्ञान प्रश्नों की  पूर्व पीठिका है।
बच्चे अज्ञानी होते हैं ऐसा हम सभी मानते , जानते और समझते हैं और  बड़े इसलिए बड़े होते हैं कि  वे ज्ञानी बेशक न हों अज्ञानी तो नहीं ही होते हैं. यह लोक प्रचलित मान्यता है. फिर भी बड़े इन  दिनों इतने प्रश्न पूछ रहे हैं जितने  उन्होंने अपने बचपन के दिनों में भी नहीं पूछे।  और ऊपर से तुर्रा ये कि  इन्हें अज्ञानी भी नहीं कह सकते।  मैं स्वयं इनमे से एक हूँ।
तो फिर क्या बड़े प्रश्न ही न पूछें।  यह  तो संभव ही नहीं।  लेकिन एक काम तो कर ही   सकते हैं।  वो यह कि ज्ञानी होने की   चादर ओढ़कर प्रश्न न पूछें। शायद ऐसा करने से प्रश्नों की संख्या कम  हो और उनका मूल्य बढ़ जाये।उत्तरों की गुणवत्ता और अर्थवत्ता भी बढ़ने की आशा की जा सकती है।

करुणेश 
पटना 
१। १२। २०१६ 

Wednesday, 30 November 2016

पहला दिन पहला ब्लॉग

मुझे ब्लॉग की जरूरत क्यों महसूस हुई. आज के इंटरनेटि युग मे शायद ऐसा कुछ भी नहीं जो लिखा , सुना देखा या पढ़ा न गया हो. फिर भी कुछ छूट जाता है मेरे हिसाब से या शायद उस तरीके से कहा , सुना, पढ़ा या देखा नहीं जाता। अब तक मेरी आवाज घरवैया ही रही. कुछ लिखना उस से भी कम सहेजना और उस से भी कम कहना पर सोचना जारी रहा।  वैसे भी सोच कर सोचा कहाँ जा सकता है।  सोचने के लिए विषयों की कमी कभी नहीं रही।  वैसी हर बात जो स्फुरण दे , सहलाये या सिहरन पैदा करे सोचने के लिए उकसाती रही।  और इस तरह सोचना  भी मेरे दैनिक चर्या का एक हिस्सा बन गया. क्रिया कर्ता के ऊपर हावी हो गयी। और सिलसिला यहाँ तक आ पहुंचा।

यह  भी कि अग्रजों का प्रोत्साहन  और उस से भी ज्यादा अनुजों की अनुशंसा इस का कारक  रही।  नामों के औचित्य और महत्व से ज्यादा उनकी सहभागिता और सहजीविता है.

मेरे इस उपक्रम का उद्देश्य मात्र अपनी कहना ही नहीं आप की सुनना भी है।  आईये गप करें।  

करुणेश 
पटना 
३०। ११। २०१६ 

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे न्यायधीश मरे न्यायालय लेकिन मौन । इतने सर हैं , इतने बाजू देखो लेकिन बोले, कितने - कौन ? सत्ता की कुंडी खड़काने आये जो दो -...