Tuesday, 30 May 2017

शिक्षा और रोजगार

सामान्यतः शिक्षा और रोजगार का अन्योनाश्रय सम्बन्ध माना जाता है। यह भी सर्वमान्य है कि शिक्षा व्यक्ति को रोजगार दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। रोजगार का सीधा सम्बन्ध उत्पादन से है। रोजगार का सम्बन्ध समाज में व्यक्ति की उपयोगिता और मूल्यवत्ता से भी है। अर्थात शिक्षा व्यक्ति को समाज में आर्थिक रूप से उपयोगी और मूल्यवान बनाती है - ऐसा कहा जा सकता है। 

सामन्यतः जब हम शिक्षा की बात करते हैं तो इसका अर्थ अकादमिक शिक्षा से ही लिया जाता है। जीवन के प्रारंभिक वर्षों से ही अकादमिक शिक्षा की शुरुआत हो जाती है जो कम से कम १५ - १७ वर्षों तक तो सामान्यतः चलती ही है। लेकिन इतने वर्षों की शिक्षा हमें आर्थिक रूप से समाज में उपयोगी नहीं बना पाती। तभी तो " कौशल विकास " जैसी योजना की जरूरत महसूस हुई। यह दुर्भाग्य और दुर्घटना दोनों ही है कि आजादी के बाद की लगभग दो पीढ़ियां इसका शिकार हुईं। इसलिए शिक्षा की दुरवस्था और घटते रोजगार के मौके की पहचान यदि राष्ट्रीय आपदा के रूप में नहीं की जा रही है तो यह देश के लिए किसी भी बड़े खतरे से बड़ा खतरा होगा जिसके परिणाम कल्पनातीत होंगे। 

अंग्रेजी में एक कहावत है "Rising tide raises all boats" जिसका हिंदी रूपांतरण होगा समुद्र में ज्वार आने पर लहरें सभी जलयानों का स्तर उठा देती हैं। इसका निहितार्थ यह भी कि ऐसा होने का कारण जलयानों की अतिरिक्त योग्यता या नाविकों की कार्यक्षमता  न होकर समुद्र में उठने वाला ज्वार है। इस उद्धरण को यहां कहने का तात्पर्य यह भी है हमें तकनीक सम्पन्नता को मानवीय विकास की सम्पूर्णता मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। इसे सिद्ध करने के लिए जटिल आंकड़ों की दुनिया में न जाकर सिर्फ यह देखने से ही पर्याप्त प्रमाण मिल जाएगा कि एकाधिक बार मौलिक आवश्यकताओं  पर किया जाने वाला व्यय सुविधा के लिए किये गए तकनिकी आवश्यकताओं के मुकाबले काफी कम होता है। राजनीति इसे ही विकास का पैमाना मानती है और अपनी उपलब्धि भी। इस विकास के दिवास्वप्न से हम सब अनेकों बार छले जाते है लेकिन यह इतना आकर्षक और सम्मोहक होता है कि इसकी कुटिलता हमें दिखाई नहीं देती। यही कारण है कि शिक्षा और रोजगार जैसे गंभीर विषय जो सदियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं या तो आंकड़ों में खो जाते हैं या अरण्य रोदन बन कर रह जाते हैं। 

औद्योगिक क्रांति के बाद वैश्विक तकनीक सम्पन्नता से पूरे विश्व में एक तकनिकी ज्वार आया है। परमाणु विज्ञानं और सूचना एवं संचार क्रांति ने इस ज्वार को अति गतिशीलता दी है और बहु आयामी भी बनाया है। इस युग ने जो सबसे बड़ी चुनौती हमारे सामने रखी है वह है बदलाव की गति (Speed of Change). गति का परिमाण आज तीव्रतम है और इसके और अधिक तीव्रतर होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

अब फिर से मूल प्रश्न पर लौटते हैं। हमने यह मान लिया कि आज की शिक्षा कौशल विकास नहीं करती। और इसीलिए यह रोजगार परक भी नहीं। साथ - साथ हमें यह भी जानना और मानना होगा कि यह शिक्षा बदलाव की गति से अपना साम्य स्थापित करने में पूरी तरह विफल है। कोई आश्चर्य नहीं कि देश का सेंसेक्स एवं जी डी पी और बेरोजगारी दोनों साथ - साथ नयी ऊचाइंयों को छू रहे हैं।

कौशल विकास के द्वारा हम रोजगार परकता यानि राष्ट्रीय उत्पादकता की वृद्धि कर तो सकते हैं लेकिन कौशल विकास कोई औद्योगिक संयंत्र लगाने जैसा काम तो है नहीं। ऐसा भी नहीं कि किसी एक सरकार  के कार्यकाल में यह कार्य पूर्ण हो सके। इसके लिए तो पीढ़ियों में और पीढ़ियों तक निरंतर बदलाव की आवश्यकता होगी उस गति के साथ जिस गति से तकनिकी बदलाव हो रहे हैं इसके आयामों की सम्पूर्णता सहित।

कम से कम राजनितिक , शैक्षणिक और सामाजिक व्यस्था इसकी निरंतरता बनाये तो रखे और इसकी गंभीरता भी। याद रखें यह एक मात्र राष्ट्रीय दायित्व है जिसके समाप्त होने की अंतिम तिथि कभी नहीं आएगी।

करुणेश
पटना
३०। ०५। २०१७   



Saturday, 27 May 2017

फेंकल (फेंका हुआ) न्यूज़

बहुत दिन पहले एक हिंदी कहानी पढ़ी थी जिसका शीर्षक था - " टेकबे त टेक ना त गो। " कहानी पढ़ने के उपरांत शीर्षक का अर्थ समझ में आया। एक सब्जी बेचने वाली स्त्री से कोई व्यक्ति सब्जी का ज्यादा  मोल - भाव कर रहा था जिस पर झुंझला कर सब्जी बेचने वाली ने जो कहा वही शीर्षक बन गया जिसका अर्थ था लेना (Take) है तो लो नहीं तो जाओ। लोक मानस द्वारा की गयी भाषा का बोली में रूपांतरण। 

आज अचानक ही यह शीर्षक याद आ गया फेक न्यूज़ के सन्दर्भ में शाब्दिक / लयात्मक साम्यता के कारण। 

कंप्यूटर से निकल कर मोबाइल में समाया हुआ सोशल मीडिया फेक न्यूज़ का सबसे बड़ा दुर्ग है। मैं फेक न्यूज़ को दो वर्गों में रखता हूँ। पहला वह जिसे निहित उद्देश्य के साथ सार्वजानिक किया जाता है। और दूसरा जिसका कोई निहित उद्देश्य तो नहीं होता लेकिन जिसे अधूरी /अधकचरी जानकारी सार्वजानिक करने की उतावली होती है। गूगल पंडित अपने यजमानों को बगैर दक्षिणा यह सुविधा मुहैया करते हैं - सर्वथा निरपेक्ष होकर। 

फेक न्यूज़ ब्रॉडकास्टर/ टेलीकास्टर और प्रमोटर / पट्रोनिज़ेर का टैग लाइन या मार्केटिंग मंत्र है -  टेकबे त टेक ना त फेंक। इसे फेंकने वाले को टेकने वाले की चिंता नहीं होती। हम जैसे अपना कचरा फेंकते हैं वैसे ही इसे भी। और थोड़े ही यह पर्यावरण को गन्दा करता है। फेंकने के कारण होने वाले मानसिक प्रदूषण के बारे में भारत में कानून असमंजस में है। बाकी शासकीय व्यस्था  तब तक इसके साथ चलने की कोशिश कर रही है ऐसा मुझे भरोसा है। 

इस लिए आप भी उतने दिनों तक इसी मन्त्र को अपनाये -  टेकबे त टेक ना त फेंक।

करुणेश 
पटना 
२७। ०५। २०१७ 


Tuesday, 16 May 2017

अंत में न्याय

अक्सर हम सुनते हैं कि अंत में न्याय की जीत हुई। आखिर में सत्य विजयी हुआ। यह वाक्य बार - बार सुनने को मिलते हैं। मेरे पास एक प्रश्न है। यदि अंत में सत्य और न्याय आते हैं तो उसके पहले क्या ? निश्चित ही वह और कुछ हो या न हो सत्य और न्याय तो नहीं ही होगा। इतना ही नहीं सत्य और न्याय शुरू में ही क्यों नहीं मिलते। क्या ये  इंतजार में बैठे रहते हैं किसी वी आई पी की तरह ताकि अन्याय और असत्य भीड़ में बैठकर तालिया बजाएं इनके लिए। न्याय और सत्य ही एकमात्र दो ऐसी चीजें हैं जिनके लिए समय का कोई मोल नहीं। 

देर लेकिन अंधेर नहीं की मानसिकता हमारे जीवन का स्थायी भाव बन गया है। 

इसे हमारी व्यवस्था का दोष कहें या मानवीय दुर्बलता। समझ में नहीं आता। व्यवस्था की बात करूँ तो मानवीय स्वाभाव का प्रश्न सर उठा लेता है और मनुष्य की दुर्बलताओं का जिक्र हो तो यह प्रश्न व्यवस्था के मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है। 

आप इस प्रश्न को कैसे देखते हैं या इसे प्रश्न मानते भी है या नहीं - मैं नहीं जानता लेकिन मेरी समझ में यह प्रश्न विवेक का है। व्यक्तिगत विवेक का भी और सामूहिक विवेक का भी। 

विवेक का शिक्षण - प्रशिक्षण और अभ्यास हमारी शिक्षा व्यवस्था का अंग ही नहीं है। न ही परिवार में , न ही समाज में न ही विद्यालयों / महाविद्यालयों में। हमने जीवन में कुछ बातें यूँ ही मान ली हैं। इनमे एक बात यह भी कि विवेक उम्र के साथ आता है जैसे शिक्षालयों में मिलने वाली डिग्री जो कोर्स पूरा होने के बाद प्राप्त होती है। मैं यह नहीं समझ पाता कि पांच साल के बच्चे से उसके उम्र के अनुरूप विवेक की उम्मीद क्यों न की जाए उसके सोच और व्यव्हार में। मैं यह भी मानने को तैयार नहीं कि पचपन साल के व्यक्ति का विवेक संतृप्त (saturated) हो जाएगा। हमें बदलने के लिए तैयार रहना होगा हर क्षण हर पल क्योंकि समय तो बदलेगा ही हम चाहें न चाहें। देर लेकिन अंधेर नहीं की मानसिकता अक्सर देर तो करती ही है अँधेरे को गहरा और अंतहीन भी कर देती है। 

विवेक की समझ हमारे अंदर वैज्ञानिक तार्किकता से आती है। चाहे व्यक्तिगत विवेक की बात हो या सामूहिक विवेक की। इसका शिक्षण - प्रशिक्षण तो परिवार से ही प्राप्त हो सकता है जिसका अभ्यास विद्यालयों / महाविद्यालयों की परिधि में हो ताकि सामूहिक विवेक समाज में अपनी सार्थक और सक्रिय भूमिका अदा कर सके। 

करुणेश 
पटना 
१६। ०५। २०१७ 

Wednesday, 10 May 2017

सखी , वे मुझसे कहकर जाते !

कल रात (आज बुद्ध पूर्णिमा है) मैंने एक सपना देखा। 

आधी रात और ब्रह्म मुहूर्त के बीच का समय था। अचानक मुझे एक बूढी आवाज अपने कानों में सुनाई पड़ी। पहले मुझे यह मच्छर की भिनभिनाहट जैसी लगी। लेकिन अर्धचेतन में भी मैं दूसरे या तीसरे बार में शब्दों को स्पस्ट समझ रहा था। अरे यह तो राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त रचित यशोधरा की एक पंक्ति थी जो मेरे कानों को सुनाई दे रही थी - " सखी , वे मुझसे कहकर जाते !" मुझे मेरे चौकने जैसा आभास हुआ। मैंने नींद में ही अपनी आँखों पर जोर दिया और अपनी पपनियों को आँखों पर से थोड़ा हटाया। मुझे मैथली शरण गुप्त दिखे। वही गांधी टोपी , थोड़ा लम्बोतरा चेहरा , चेहरे पर खीचड़ीनुमा दाढ़ी , थोड़े धंसे हुए गाल , खादी का कुरता और उसके ऊपर अण्डी , बाएं कंधे पर एक छोटा सा सफ़ेद गमछा। आधी खुली आँखों से ही मैं उनको पहचान तो गया था पर कोई और विचार मेरे मन में आता इसके पहले ही मुझे उनके पीछे गौतम बुद्ध खड़े दिखने लगे। गुप्त जी शायद अगली पंक्ति मुझे सुनाने ही वाले थे कि इसके पहले ही गौतम बुद्ध बोल पड़े। 

बुद्ध - कविवर !
गुप्त (पीछे मुड़ते हुए) - कौन ?
बुद्ध - मैं , गौतम। 
गुप्त - अरे आप तथागत। आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हो गया। कभी सोचा भी न था कि आपके दर्शन भी हो सकेंगे। 
बुद्ध - मुझसे मिलने की कभी इच्छा भी हुई क्या आपको ?
गुप्त - ऐसा न कहें भगवन। 
बुद्ध - क्यों ? आपकी भेंट अगर रामानुज लक्ष्मण से भी होती तो भी आप ऐसा ही व्यव्हार करते। 
गुप्त -  मैं कुछ समझा नहीं। 
बुद्ध - यही तो समस्या है। 
गुप्त - क्या ?
बुद्ध - नहीं समझना और क्या ?
गुप्त - पर कैसे ?
बुद्ध - समझने के लिए सम्यक विचार करना होता है। 
गुप्त - हाँ। 
बुद्ध - आपने यह किया ही नहीं। 
गुप्त - मुझे ऐसा तो नहीं लगता। लेकिन आप कहते हैं तो मान लेता हूँ। 
बुद्ध - मेरे कहने से मानने की जरूरत नहीं है। 
गुप्त - क्यों ? 
बुद्ध - अब मानने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। 
गुप्त - ज्ञान वह भी बुद्ध से, कभी भी मिले , सौभाग्य है। 
बुद्ध - तो "यशोधरा" लिखने से पहले इसका प्रयास करते। या कम से कम "उर्मिला" के बाद तो निश्चय ही करना चाहिए था। मगर सम्यक ज्ञान का सिद्धांत दांपत्य रस लेने वालों को कहाँ प्राप्त होगा। अपने दुःख की समानुभूति के लिए दूसरे के कंजुगल लाइफ को पब्लिक कर देना अनैतिक और अशोभनीय तो है ही असाहित्यिक भी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आपको ठीक ही चिरगंवार (चिरगावँ निवासी होने के कारण आपको दिया गया विशेषण ) कहा था। नागरीय जीवन पद्धति को समझना आपके वश में नहीं। 

गुप्त जी कुछ बोल पाते और मैं कम से कम दोनों के अभिवादन के लिए अपने हाथ जोड़ पाता इसके पहले  चिड़ियों की चहचहाट ने मेरा सपना ही भंग कर दिया। अब जब सपना ही टूट गया तो आगे क्या कहूँ। 

करुणेश 
पटना 
१०। ०५। २०१७ 

Thursday, 4 May 2017

दो बनाम पचीस

पाकिस्तान ने दो भारतीय सैनिकों के शवों को क्षत विक्षत किया अभी चंद रोज पहले। इस घटना के महज कुछ ही दिन पहले छत्तीसगढ़ के सुकमा में २५ सी आर पी एफ जवान  नक्सली हिंसा के शिकार हुए। इन दोनों घटनाओं पर सामन्य नागरिकों की प्रतिक्रया आश्चर्यजनक रूप से बहुत ही अलग है। जबकि परिणाम दोनों ही घटनाओं का एक जैसा रहा। यदि संख्या को आधार माने तो छत्तीसगढ़ की घटना पाकिस्तानी कुकृत्य से ज्यादा बड़ी प्रतीत होती है। लेकिन आम नागरिक इस घटना से सामन्यतः निरपेक्ष रहे जैसे कोई बड़ी सड़क या रेल दुर्घटना में २५ लोग मारे गए हों। 

हमारी मानवीय प्रतिक्रियाएं भी उत्पाद की तरह हो गयी हैं जिसे  हम उनके बिकने यानि  पढ़े - देखे - सुने - लाइक किये जाने की संभाव्यता के आधार पर अभिव्यक्त करते हैं। अभी प्रेस की आजादी के सन्दर्भ में टीवी पर किसी को यह कहते हुए सुना था कि हमने सोचने का ठेका भी औरों विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया को दे रखा है। बात मुझे तर्कपूर्ण और अर्थपूर्ण दोनों लगी। 

मुझे यह भी लगता है कि हम इकाई रूप में जितने अधिक सजग और सचेत होते हैं उतने ही कम सजग और सचेत सामाजिक सन्दर्भों में। समाज की उपयोगिता और उपादेयता का व्यवहारिक शिक्षण हमें आरंभिक दिनों में ही नहीं मिला है। परिणाम यह कि हम सार्थक सामाजिक इकाई होने की अपनी भूमिका अक्सर निभा नहीं पाते हैं। बचपन से ही हमने ऐसी आदतों का अभ्यास किया है कि बहुत बार न चाहते हुए भी हम वैसा व्यव्हार नहीं करते जैसा एक परिपक्व सामाजिक इकाई के रूप में किया जाना चाहिए। 

संचार की आधुनिक तकनीक संपन्न दुनिया के बेशक अनेकों फायदे हैं लेकिन इसने मन की निजता छीन ली है। हमारी कल्पनाओं के रूप रंग और आकार तक इनकी मात्र छायाप्रति बन कर रह गए हैं। तकनीक का उपयोग करते करते कब हम स्वयं तकनीक बन गए यह पता ही नहीं चला। अब तो हम या तो तकनीक का उपभोग करते हैं या तकनीक हमारा। तकनीक ने हमें दूसरों की दृष्टि से देखना सुनना बोलना और सोचना सिखाया है। सब एक दूसरे की छायाप्रति। नैसर्गिकता और मौलिकता तकनीक का कॉपीराइट है मेरा और आपका नहीं। 

ऐसे समय में जब अधिकांश पाकिस्तानी बर्बरता को कोस रहे हों तब भला २५ सी आर पी एफ जवानों की बात या फिर नक्सलियों की बात क्यों की जाए। शायद अधिकांश यह सोचते हैं कि छत्तीसगढ़ के मुकबले देश ज्यादा बड़ी चीज़ है। बात भी सही है। कम से कम इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के आईने में। 

करुणेश 
पटना 
०४। ०५। २०१७  

Wednesday, 3 May 2017

कब तक , किस हद तक

पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों के शवों को एक बार फिर क्षत विक्षत किया। यह कोई पहली बार नहीं है।  इसके पहले भी ऐसी घटनाएं हुई हैं। राजनैतिक प्रतिक्रियाएं भी पिछली बार की तरह ही हैं और नागरिक प्रतिक्रियाएं भी। 

प्रश्न केवल आत्म सम्मान का नहीं है। प्रश्न एकता और अखंडता का नहीं है। प्रश्न राजनैतिक इच्छाशक्ति की दुर्बलता का भी नहीं है। प्रश्न संभावित वैकल्पिक करवाई का है जिसके दो महत्वपूर्ण हिस्से हैं - कब तक और किस हद तक। 

मैं विदेश मामलों का कोई ज्ञाता नहीं हूँ और न ही मुझे  आतंरिक मामलों की विशेज्ञता हासिल है। लेकिन एक नागरिक की हैसियत से अपनी बात कहना चाहता हूँ। 

इस पूरी समस्या के तीन कोण हैं। पहला कश्मीर से १९४७ - १९९० तक  लगातार हिन्दुओं का पलायन जिसने बहु धार्मिक सामाजिक संरचना को पूरी तरह समाप्त कर दिया। दूसरा १९७१ के युद्ध के फलस्वरूप पाकिस्तान का विभाजन और पाकिस्तान के राजनैतिक जमात की विश्वसनीयता का पाकिस्तानी जनता में पूरी तरह ख़तम हो जाना। तीसरा चीन और अमेरिका की भारत विरोधी विदेश नीति और पाकिस्तान को वैश्विक , आर्थिक और सामरिक सहयोग और संरक्षण प्रदान करना। 

यह एक कड़वी सच्चाई है कि कांग्रेस और उनके नेताओं द्वारा लगातार मुस्लिम तुष्टिकरण किया गया। इसके अनेकों उदाहरण इतिहास में दर्ज़ हैं। लेकिन अब क्या हिन्दू तुष्टिकरण चला कर अतीत को सुधारा जा सकता है। समाधान समस्या का विपर्यय (Opposite) नहीं होता। सुनने में यह बात बेहद कड़वी लगे लेकिन मेरी समझ यह कहती है कि हमें कश्मीर में एक मुस्लिम भारत की सामाजिक संरचना कर देनी चाहिए राजनैतिक और सामाजिक रूप से और भारतीय संविधान के दायरे में ताकि यह मुस्लिम भारत पाकिस्तान के धर्म पोषित आतंकवाद का सामना कर सके। यानि इस्लाम बरक्स इस्लाम। मैं किसी आदर्श की बात नहीं कर रहा हूँ। हो सकता है ऐसा होने में एक पूरी पीढ़ी निकल जाए लेकिन एक राष्ट्र के सन्दर्भ में २५ - ३० साल कोई लम्बी समयावधि नहीं होती। 

पाकिस्तान के साथ आर्थिक और राजनैतिक सम्बन्ध विच्छेद कम से कम दो तीन दशकों तक। आतंरिक और बाह्य स्तर पर  राजनैतिक और आर्थिक नुकसान का जोखिम उठाते हुए अमेरिका से लालच की कूटनीति न करने का संकल्प क्योंकि चाहे कुछ भी हो अमेरिका का दक्षिण एशियाई हित पाकिस्तान की सत्ता और सैन्य व्यस्था के पोषण , संरक्षण और संवर्धन में ही निहित है। अब चीन की बात। हम एक साथ कई मोर्चों पर जोखिम नहीं उठा सकते। इसलिए यह आवश्यक है कि हमारी सामरिक तैयारी पाकिस्तान के बजाय चीन को सामने रख कर होनी चाहिए। चीन की कोशिश हमेशा ही यह होगी की युद्ध भूमि पाकिस्तान या भारत हो और चीन पाकिस्तान का मददगार। लेकिन चीन ऐसी किसी परिस्थिति में होना पसंद नहीं करेगा। परमाणु अस्त्र का भय न सिर्फ हमें होना चाहिए बल्कि उसी मात्रा में औरों को भी होना चाहिए। यह भय ही शक्ति संतुलन की तुला होगी। 

मैं नहीं जानता मेरी बात तर्कपूर्ण और व्यवहारिक है भी या नहीं। हमें यू एन सिक्योरिटी कौंसिल के मेंबरसिप को राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धि के मोह से मुक्त होने की नितांत आवश्यकता है। हमें अमेरिका से मिलने वाले वीसा का मोह भी त्यागना होगा। हम संप्रभु हैं और हम समर्थ हैं।  अपने दम पर राष्ट्र और इसके नागरिकों , सैनिकों को सम्मानपूर्ण जीवन देने में। यह निष्ठां राजनैतिक विवेक का स्थायी भाव होना चाहिए। बदलती रणनीतियां छोटी सफलताएं बेशक दिलवा दें लेकिन लम्बे काल खंड के लिए राष्ट्र को सबल नहीं बना सकती। और हाँ अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात एक राष्ट्र के रूप में संवैधानिक शीर्ष को किसी दूसरे देश की आंतरिक अशांति को वैदेशिक कूटनीति का हथियार बनाने से बचना चाहिए। 

करुणेश 
पटना
०३। ०५। २०१७  

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे न्यायधीश मरे न्यायालय लेकिन मौन । इतने सर हैं , इतने बाजू देखो लेकिन बोले, कितने - कौन ? सत्ता की कुंडी खड़काने आये जो दो -...