हम सबने गुलमोहर के पेड़ देखे ही हैं। सड़कों के किनारे। घने , छतनार और छायादार लेकिन बहुत ऊँचे नहीं। ये अपने को अपने फूलों के माध्यम से बेहतर अभिव्यक्त करते हैं। चटख लाल या पीले रंगों में। अभी मौसम भी इनका ही है इसलिए इनकी बात लेकिन इसी बहाने कुछ और भी।
गुलमोहर के फूल खिलते हैं और राहों में बिखर जाते हैं। यही इनकी नियति है। जब सूरज की किरणों का ताप प्रखरतर होने लगता है वही मौसम इन्हें अपने लिए अनुकूल लगता है। खिलने के लिए भी और बिखरने के लिए भी। श्रृंगार और सौंदर्य के लिए सामान्यतः अप्रयुक्त। शुष्क होती हुई प्रकृति और तप्त होती हुई सूर्य किरणों की चुनौती इसे स्वयं को अभिव्यक्त करने का श्रेष्ठ समय लगता है। शायद विरोध के रोर में प्रतिरोध के स्वर इसी प्रकार अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं।
दिल्ली के रामजस कॉलेज की गुरमेहर मेरे लिए तो इस मौसम का गुलमोहर ही है। अपनी चटख अभिव्यक्तिओं के साथ। भावनाओं के गहरे रंगों से सराबोर। श्रृंगार और सौंदर्य से परे। मेरी विचार वीथिका में बिखरी हुई।
करुणेश
पटना
०१। ०३। २०१७
गुलमोहर की कथा एवं गुरमेहर की व्यथा परस्पर विरोधाभषी है,जहां एक धरा पे गिर के भी आभा फैलाती है तो दुसरी social media पे रायता ।
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