Tuesday, 28 March 2017

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि

आज शाम से या कुछ लोगों के अनुसार कल से चैत्र नवरात्र का प्रारम्भ हो रहा है। हिन्दू धर्म में नवरात्र का बहुत महत्व है। एक गण्य वर्ष में दो नवरात्र प्रचलित हैं। एक चैत्र नवरात्र और दूसरा शारदीय नवरात्र। चैत्र नवरात्र की पूर्णाहुति रामनवमी को होती है और शारदीय नवरात्र की दशहरा में। नवरात्र के दौरान हिन्दू घरों में देवी दुर्गा की पूजा - आराधना होती है। 

देवी दुर्गा को समर्पित संस्कृत काव्य रचना, जिसका स्रोत मार्कण्डेय पुराण माना जाता है , उसे दुर्गा सप्तशती कहते हैं। प्रमुख रूप से इसके तीन खंड या सर्ग हैं - कवच , कीलक और अर्गला जिसका पाठन और वाचन ध्यान धारण करते हुए नवरात्र में किया जाता है। अर्गला खंड में कुल सत्ताईस द्विपदी  हैं। अर्गला खंड के सत्ताईस में से चौबीस द्विपदियों में 'रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ' की आवृति हुई है। प्रत्येक द्विपदी के पहले पद में देवी दुर्गा की शक्तियों और उनके द्वारा किये गए कार्यों का आराधन है और फिर पूजक के कामना स्वरुप इस पद की आवृति की गयी है। 

अपनी बात शुरू करने से पहले इतनी भूमिका मुझे आवश्यक लगी यद्यपि अधिकांश हिन्दू इसे जानते है विशेषकर महिलाएं। आप भी उत्सुक होंगे यह जानने के लिए कि जो बात अधिकांश को मालूम है तो यह ब्लॉग मैं लिख ही क्यों रहा हूँ। मुझे कुछ नया नहीं कहना बस आपकी याद ताज़ा करनी है। 

जिस पद को ध्यान में रखकर यह ब्लॉग लिखा जा रहा है अब उसकी बात। 

हम रूप की कामना करते हैं। हम जय की कामना करते हैं। हम यश की कामना करते हैं। करनी भी चाहिए। हम इन्हें प्राप्त करने के लिए आजीवन रत भी रहते हैं। पर जैसे ही 'द्विषो जहि ' की बात आती है हम भूल जाते हैं। द्विषो का अर्थ मेरी समझ में द्वेष , ईर्ष्या , काम और क्रोध है। हम कितनी गंभीरता से इन अवगुणों से बचने का उद्यम करते हैं। वास्तविकता तो यह भी है कि जैसे ही हमें रूप , जय और यश की प्राप्ति होती हैं 'द्विषो' हमारे अंदर उतना ही गहरा होता जाता है। जीवन के भिन्न - भिन्न क्षेत्रों में हमें रोज - ब - रोज इसका अनुभव होता है। हमें तो यह भी भान नहीं होता कि द्वेष, ईर्ष्या ,काम और क्रोध के सन्दर्भ में कब हम कारक होते हैं और कब कर्ता। करोड़ों लोग वर्षों से इसका पाठ करते हैं और आगे भी करते रहेंगे लेकिन 'द्विषो जहि ' की जगह 'द्विषो अहि ' की स्थिति से हम रोज दो - चार होते हैं। 

हम लोग जिसकी कामना करते हैं उसका अर्थ भी समझें और कम से कम उसके एकांश को कार्यान्वित करने का सत्साहस दिखाएं ऐसी मंगल कामना तो करनी ही चाहिए। कम से कम अड़तालीस बार तो जरूर एक वर्ष में। 

चैत्र नवरात्र और रामनवमी की शुभकामना। 

करुणेश 
पटना 
२८। ०३। २०१७ 

Saturday, 25 March 2017

शोर और भीड़

आंकड़ों में भारत युवाओं का देश है। सामान्यतः युवावस्था में दोस्तों की संख्या अधिक होती है। शायद ही हम किसी नौजवान को अकेला पाते हैं। अकेलापन अधिकतर प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था की संगति  है। जवानी अपने आस पास संख्या बल रखती है जो दीखता है। इसका अनुभव कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में स्वयं ही कर लेता है। संख्या बल के माध्यम से एक युवा अपनी भिन्न शक्तियों (यथा वैचारिक , सामाजिक या राजनैतिक ) को दिशा देता है , पुष्ट करता है और प्रदर्शित करता है। इस प्रकार एक समूह का निर्माण होता है। यह समूह कोई संगठन या संस्थान का स्वरुप नहीं ग्रहण करते हैं क्योंकि इनमे तात्कालिकता का तत्व ज्यादा प्रभावी होता है। इन समूहों को सामान्यतः भीड़ कहते हैं। 

भीड़ का भौतिक स्वरुप होना कोई आवश्यक नहीं है इसके अस्तित्व के लिए। सामान विचारों की भिन्न दैर्घ्य (Frequency) वाली तरंगों का समुच्चय भी भीड़ का निर्माण करता है। आज के तकनीक समृद्ध समाज में ऐसे भीड़ की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। चूँकि इनमे विचारों का तरंग दैर्घ्य (Wave Frequency) व्याकरण रहित आरोहण या अवरोहण , उच्च या निम्न तल को  प्राप्त करता है जिसके कारण शोर पैदा होता है। चूँकि इनमे शोर होता है इसलिए इनकी आवाज अधिकाधिक लोगों तक पहुँचती है। कुछ प्रभाव तो इनका पड़ता ही है जन मानस पर। इस प्रकार शोर और भीड़ दोनों मिलकर जनमत (Public Opinion) का निर्माण करते हैं। 

जनमत वह यंत्र है जो सत्ता को तार्किक एवं वैधानिक बनाती है। और सत्ता राजनीति का पहला और आखिरी कदम। 

समय  निष्पक्ष होने का है न कि तटस्थ होने का। अकेलेपन के शिकार प्रौढ़ और वृद्ध (केवल शारीरिक रूप से नहीं) भीड़ और शोर के इस स्वरुप का रूप परिवर्तन का मार्ग खोजें अन्यथा उनकी हाय तौबा विधवा - विलाप  के सिवा कुछ नहीं होगी और तटस्थता का कलंक लगेगा सो अलग। 

करुणेश 
पटना 
२५। ०३। २०१७ 


Wednesday, 22 March 2017

उगटा पुराण


हिन्दू धर्म ग्रंथों में पुराण का बहुत महत्व है। पुराण भी कई हैं और हर पुराण की रचना कुछ निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रख कर की गई है। पुराणों में अंतर्सबंध भी होता है। लेकिन उगटा  पुराण  धार्मिक पुराणों से पूर्णतः भिन्न है। इसे अधिक से अधिक व्यवहार पुराण कहा जा सकता है। 


वास्तव में उगटा  पुराण  कोई पुस्तक नहीं बल्कि एक क्रिया है। बिहारी बोलचाल में इसे उगटा या उघटा पुराण कहते हैं। अन्य भाषाओँ या  बोलियों में इसके समानार्थी शब्दों की जानकारी मुझे नहीं है। 

जब किसी व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति पर अतीत में कहे या किये गए किसी कर्म या कथन को तोड़ - मरोड़ , काँट - छाँट कर इस तरह  उदधृत  किया जाये कि पहले व्यक्ति का कथन या क्रिया की तार्किकता और सामयिकता सिद्ध हो सके तो ऐसी क्रिया या कथन का होना उगटा या उघटा पुराण का होना सिद्ध करता है। निंदा रस  इस पुराण की अंतर्धारा है। क्रोध , झुंझलाहट , चिड़चिड़ाहट और अधैर्य इसके मुख्य उत्प्रेरक होते हैं।  इसकी उत्पत्ति का स्रोत संस्कृत के इस पद में कुछ कुछ झलकता है। 

काव्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छति धीमताम। 
व्यसनेन च मूर्खानाम निद्रया कलहेनवा। 
(वर्तनी की अशुद्धियाँ माफ़ कर दी जाएं )

पुरुष सामन्यतः इसका प्रयोग अपने ऑफिसों में करते हैं। अपने सहकर्मियों के लिए और उनके साथ। स्त्रियां इसका प्रयोग घरों में करती हैं। शादी - शुदा महिलाएं इसका प्रयोग अपनी सास , गोतनी और ननद - भौजाई के लिए ज्यादा करती हैं। इसे व्यव्हार में लाने  वाले या वाली सात्विक भाव से इसकी शुरुआत करते हैं। इसकी पूर्णता सामान्यतः रौद्र रस या वीभत्स रस पर होती है। चाहे इसकी पूर्णता कैसे भी हो भविष्य के लिए इसकी उपयोगिता कभी समाप्त नहीं होती है।

उगटा  पुराण  विश्व व्यापी है। राजनितिक दल और धर्म गुरु अपने सत्ता संस्थानों के हित - अहित के निकट और दूर गामी परिणामों को ध्यान में रखकर इसका प्रयोग करते हैं। यह एक मात्र ऐसा कार्य व्यवहार है जिसमे इंडिविजुअल और इंस्टिट्यूशन दोनों मिलकर आइडियल इडियोटिक्स करते हैं जिसे सामान्य जनता उनका मार्ग दर्शन समझती  है और " येन महाजना गता सः पन्था " की तर्ज़ पर पर आँख मूँद कर आगे बढ़ती है। 

उगटा या उघटा शब्द की व्युत्पत्ति उघाड़ना या उघड़ना में मानी जा सकती है। उघड़ना गरीबी को प्रदर्शित करता है जैसे उघड़े वस्त्र और उघाड़ना स्वैच्छिक प्रदर्शन है और इसमें कायिक भाव का अर्थ ज्यादा झलकता है। कहीं यही  तो कारण नहीं कि हर उगटा  पुराण  की पूर्णता व्यतिगत आक्षेपों और चरित्र हनन पर समाप्त होती है। 

करुणेश 
पटना 
२२। ०३। २०१७ 


Saturday, 18 March 2017

हराना

जीतने से ज्यादा ख़ुशी हमें हराने में मिलती है। जीतना व्यक्तिगत मामला है। हराने में व्यापकता होती है। जीत दीर्घजीवी नहीं होती। हराया जाना जीतने से भी बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इसीलिए जीतने पर विचार मंथन कम  ही होता है लेकिन हराये जाने के बाद  मंथन ,चिंतन और मनन एक आवश्यक प्रक्रिया है। 

हराने का सुख जीतने के सुख से दुगुना होता है। इसीलिए टेलीविज़न और अख़बारों में हराये गए लोगों की खबरें प्रमुखता पाती हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में जीतने का सुख हमें मुश्किल से मिलता है। हारना हमारे जीवन का स्थायी भाव है। लेकिन हमें हराया जाना पसंद नहीं। 

हराये जाने से हमारा कद छोटा होता है। हम बड़े नहीं बन पाते। इसलिए हम या तो जीतते हैं या हारते हैं लेकिन कभी हराये नहीं जाते। आखिर तर्क , मुहाबरे , लोकोक्ति और प्रेरक शब्दावलियाँ किस दिन  के लिए गढ़ी  जाती हैं। हराये जाने के बाद जीतने वाले की आँखों की ख़ुशी मुझे महत्वहीन बनाये इससे पहले बेहतर है मैं हार जाऊं। 
अपनी रूखी सूखी थाली के सामने दूसरे को छप्पन भोग खाते हुए निहारने की प्रजातान्त्रिक उदारता राजनीतिक दलों में हो तो हो मेरे पास तो नहीं है। 

करुणेश 
पटना 
१८। ०३। २०१७ 

Thursday, 2 March 2017

कॉकटेल

किसी व्यक्ति के बारे में हमारी समझ उसके कार्यों और कथनों से बनती है। लेकिन व्यक्तियों से  हमारे सम्बन्ध उनके द्वारा किये गए कार्यों और बोले या लिखे हुए  कथनों से उत्पन्न प्रभाव के आधार पर बनते हैं। किसी के द्वारा किया गया कोई कार्य या कहा गया कथन जिस हद तक हमें सहज या असहज बनाता है हम वैसी ही भावनाओं के द्वारा अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। सामान्यतः हमारी प्रतिक्रियाएं हमारी धारणाओं , निष्ठाओं , ग्रंथियों एवं आग्रहों की निरंतरता का द्योतक होती हैं। कुछ संद्रर्भों में तो हम हठी हो जाते हैं। समय और परिस्थितियां भी हमारे संबंधों के समझ का कारक होती हैं। 

अब करते हैं संस्थानों की बात। संस्थानों की निर्मिति मानव जनित है। ये सामान्यतः उद्देश्यपरक होते हैं। यहाँ एक बात स्पष्ट करनी बहुत जरूरी है। वो ये कि पदों का मूल स्वरुप भी संस्थानगत ही होता है। पद चाहे पारिवारिक हों जैसे माता पिता, भाई बहन, पति पत्नी या सामाजिक , धार्मिक , राजनैतिक या किसी भी और क्षेत्र से सम्बंधित। कुछ संस्थान  मात्र विचारों से गढ़े जाते हैं जैसे राष्ट्र और समाज  जिनका भौतिक स्वरुप अनेकानेक रूपों में अभिव्यक्त होता है। विचार संस्थानों के बहुल स्वरूपों के कारण इनके बारे में हमारी समझ अक्सर सुस्पष्ट और सुपुष्ट नहीं होती है। 

जैसे व्यक्तियों के अन्तर्सम्बन्ध होते हैं वैसे ही संस्थानों के भी अन्तर्सम्बन्ध होते हैं। इतना ही नहीं व्यक्तियों और संस्थानों के भी अन्तर्सम्बन्ध होते ही हैं। बेशक सारे संस्थान या तो स्वयं व्यक्ति होते हैं या व्यक्ति जनित / निर्मित। अन्तर्सम्बन्धों की बहु स्तरीयता इसे एक पक्षीय नहीं रहने देती। समय और परिस्थितियों की गोद इन्हें मात्र बहु पक्षी ही नहीं बनाती बल्कि बहु रूपी भी बनाती है। 

सारी जटिलताओं के बावजूद अंतरसंबंधों की बहुरूपता और बहु पक्षीयता एक साथ मौजूद होती है। समस्या तब होती है जब भाषिक उग्रता और असभ्यता या शारीरिक और तकनीकी हिंसा अभिव्यक्ति का स्वरुप ग्रहण करती है। व्यक्तियों के सन्दर्भ में ऐसी अभिव्यक्तियों का प्रभाव अल्प जीवी और सीमित होता  है लेकिन यदि संस्थान  ऐसा आचरण करते हैं या संस्थानों द्वारा ऐसे आचरण अभिव्यक्ति पाते हैं तो बड़े स्तर पर समरसता भंग होती है और इसके प्रभाव भी दूरगामी होते हैं। युद्ध के कारण चाहे जितने भी सार्थक हों अंततः सारे पक्ष इसे विभीषिका ही मानते हैं।शाब्दिक,वाचिक ,शारीरिक और तकनिकी उग्रता के तात्कालिक प्रभाव का सम्मोहन व्यक्तियों और संस्थानों के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। 

और अंत में निष्कर्षवादी होने का जूनून इसे एक नशीला कॉकटेल बनाता है। जिसने सबसे पहले निष्कर्ष निकाला  उसका कॉकटेल उतना नशीला। 

पता नहीं क्यों ऐसी कॉकटेल पार्टी में व्यक्ति तो व्यक्ति संस्थान  भी नशे का शिकार होने को इतना उत्सुक क्यों हैं ?

करुणेश 
पटना 
०२। ०३। २०१७ 

Wednesday, 1 March 2017

गुलमोहर

हम सबने गुलमोहर के पेड़ देखे ही हैं। सड़कों के किनारे। घने , छतनार और छायादार लेकिन बहुत ऊँचे नहीं। ये अपने को अपने फूलों के माध्यम से बेहतर अभिव्यक्त करते हैं। चटख लाल या पीले रंगों में। अभी मौसम भी इनका ही है इसलिए इनकी बात लेकिन इसी बहाने कुछ और भी।

गुलमोहर के फूल खिलते हैं और राहों में बिखर जाते हैं। यही इनकी नियति है। जब सूरज की किरणों का ताप प्रखरतर होने लगता है वही मौसम इन्हें अपने लिए अनुकूल लगता है। खिलने के लिए भी और बिखरने के लिए भी। श्रृंगार और सौंदर्य के लिए सामान्यतः अप्रयुक्त।  शुष्क होती हुई प्रकृति और तप्त होती हुई सूर्य किरणों की चुनौती इसे स्वयं को अभिव्यक्त करने का श्रेष्ठ समय लगता है। शायद विरोध के रोर  में प्रतिरोध के स्वर इसी प्रकार अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं। 

दिल्ली के रामजस कॉलेज की गुरमेहर मेरे लिए तो इस मौसम का गुलमोहर ही है। अपनी चटख अभिव्यक्तिओं के साथ। भावनाओं के गहरे रंगों से सराबोर। श्रृंगार और सौंदर्य से परे। मेरी विचार वीथिका में बिखरी हुई। 

करुणेश 
पटना 
०१। ०३। २०१७ 

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे न्यायधीश मरे न्यायालय लेकिन मौन । इतने सर हैं , इतने बाजू देखो लेकिन बोले, कितने - कौन ? सत्ता की कुंडी खड़काने आये जो दो -...