Friday, 27 January 2017

गणतन्त्र

सत्ता के उत्तुंग शिखर पर 
आज राष्ट्र का गौरव गर्जन 
कितना अद्भुत वैभव दर्शन !

मत देख उधर , मत देख इधर 
नजरें बस रख तू यहीं इधर 
कस अपने शब्दों की वल्गा 
सत्ता - पोषित सारथ्य दिखा। 

सुन कर हुंकार उठी लेखनी 
मत रोक मुझे 
मत टोक मुझे 
मत मुझे दिखा तू एक तर्जनी। 
मैं मौन रहूँ या रहूँ मुखर 
पर सदा रही निष्पक्ष प्रखर।  

माना कुछ उपलब्ध हुआ 
पर सब का कहाँ प्रारब्ध हुआ। 
मैं विजय गीत फिर कैसे गाऊँ ?
विरुद - रागिनी क्यों भला बजाऊं ?

तन्त्र कहाँ स्वतंत्र हुआ ?
झुक कर देखो और बताओ 
सच में कितना गणतन्त्र हुआ। 

करुणेश 
पटना 
२७। ०१। २०१७ 

(रचना तिथि - २६। ०१। २०१७ )

Saturday, 14 January 2017

संक्रांति

संक्रांति का अर्थ है बदलाव या परिवर्तन का वह बिदु जहाँ से एक ख़तम होता है तो दूसरा शुरू। इस अर्थ में हमारा पूरा जीवन चक्र ही संक्रांति काल है। जरा गौर से सोचने पर हमें अनुभव होगा कि संक्रांति न तो अतीत है न ही वर्तमान। यह तो दोनों का संधिस्थल है । एक ऐसा काल्पनिक संधिस्थल जो होते हुए भी नहीं होता क्योंकि समय तो अविरल होता है अतः समय की कोई संक्रांति नहीं हो सकती। हाँ समय के गणकों की संक्रांति को ही हम सामान्यतः संक्रांति कहते हैं। इसी तरह घटनाओं एवं स्थितियों - परिस्थितियों के रूपांतरण की प्रक्रिया में एक या एकाधिक बिंदुओं को हम संक्रांति से परिभाषित करते हैं। 

हमारा पूरा जीवन सहज और असहज की ओर  आने जाने का संक्रांति चक्र है। हमें सहजता भी असहज बनाती है और फिर किसी संक्रांति से गुजरते  हुए असहज होते हैं लेकिन संतुष्ट या सुखी नहीं। यह चक्र अनवरत चलता रहता है। 

मकर  संक्रांति यदि  परिणाम की प्राप्ति की आशा है तो मेष संक्रांति  नए उद्यम के शुरुआत की पूर्व पीठिका। कृषि आधारित अर्थव्यथा के सन्दर्भ में। दोनों संक्रांतियों के बीच का काल मनोरंजन या रसरंजन काल है। सहज होने का समय। 

 सहजता के स्वागत के प्रवेश द्वार पर खड़े सभी लोगों का हार्दिक अभिनन्दन। इसका भरपूर आनंद लें तबतक जबतक सहजता असहज न हो जाए। 

करुणेश
पटना
१४। ०१। २०१७

Monday, 9 January 2017

सड़कों पर पोर्न

क्या आपने अपने जीवन में कभी पोर्न पढ़ा या देखा है। आप जबाब न दें। मैंने पढ़ा भी है और देखा भी है। और यह भी जाने कि मैं एक पुरुष हूँ और नारीवादी कतई नहीं। 

हमारे जीवन का  कठोर यथार्थ यह है कि हमारी एकांत की नैतिकता हमारी सार्वजानिक नैतिकता से नितांत अलग होती है। लेकिन यदि हमारा एकांत सार्वजानिक हो जाए तो नव  वर्ष की पूर्व संध्या पर बंगलोर और दिल्ली की सड़कों पर स्त्रियों और महिलाओं के साथ  जो  हुआ वैसी वीभत्स घटनाओं को जन्म देती है। बेशक यदा कदा ही सही लेकिन ऐसी घटनाएं होती तो हैं ही। उन्माद हमारे ऊपर इस तरह छा जाता है कि मनोवेगों पर सामन्यतः लगाया हुआ अंकुश उश्रृंखल और अविवेकी होकर ऐसी मर्यादा हीन  नग्नता कर बैठता है। इतना ही नहीं हम पुरुष महिलाओं के दैनिक जीवन को इस सन्दर्भ में असहज और असुविधाजनक बनाने में कोई कोर कसार नहीं उठा रखते हैं। इसे आप स्वीकारोक्ति भी माने और सत्योक्ति भी। हाँ इसे भी आप जरूर याद रखें कि अपवाद नियम को सिद्ध करते हैं।  

हम मनुष्य क्यों नहीं हो पाते ? विपरीत लिंग के प्रति हमारा आकर्षण हमारी शारीरिक हिंसा के द्वारा क्यों व्यक्त होता है। सबके पास अपने अपने कारण हैं। शायद ही कोई ऐसा पुरुष हो जो इसकी निंदा न करता हो। लेकिन हम इस से बच क्यों नहीं पाते। मेरे व्यावहारिक समझ में दो  बातें आती हैं। पहली यह कि पुरुष की पशुता यानि  शारीरिक ताकत को उसके पहचान के साथ जोड़ना और साथ ही पुरुष को समाज के  संरक्षक की भूमिका सौपना। दूसरा स्त्रियों के कौमार्य शुद्धता को अत्यधिक महत्व देना और साथ ही उसे मनुष्येतर दैवीय  रूपों में आख्यायित  /व्याख्यायित करना। शिकारी और शिकार का जो सम्बन्ध होता है वैसे ही सम्बन्ध नारी और पुरुष के बीच आज स्थापित है और इसी को आधार मानकर (व्यवहार में) समाज की संरचना हुई है। 

तो मेरी समझ में समस्या यदि उपरोक्त है तो समाधान क्या है। समाधान शारीरिक शक्ति के प्रदर्शन के भिन्न रस्ते हो सकते हैं जैसे खेल। बचपन से यदि हम खेलों को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाएं तो शायद शक्ति प्रदर्शन  के कुछ बेहतर रास्ते मिल जाएँ। साथ ही स्त्रियों को अपने कल्पित दैवीय स्वरूपों से बाहर  निकलने की आवश्यकता है  ताकि वे एक मनुष्य की तरह अपना जीवन जी पाएं बगैर किसी सामाजिक दबाव या तनाव के। 

बड़े बड़े लोगों ने बड़ी बड़ी बाते कही हैं इस विषय पर लेकिन यह अदना लेखक जो समझा सो लिखा। आप को असहमत होने की पूरी स्वतंत्रता है। 

करुणेश 
पटना 
९। १। २०१७ 

Wednesday, 4 January 2017

प्रकाश पर्व

इन दिनों मेरे शहर पटना में प्रकाश पर्व की धूम है। सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु - गुरु गोविन्द सिंह जी की ३५०वीं जन्म तिथि प्रकाश पर्व के रूप में मनाई जा रही है। लगभग आधा पटना शहर रोशनी में डूबा है। इसी बहाने बिहार में पंजाबियत छायी है। बोल चाल , रहन सहन ,खान पान और अन्य सिक्खी परंपराएं अपने  चरम पर पटना की सड़कों पर दिख रही है। इनकी  सबसे ज्यादा धूम गांधी मैदान में बने टेंट सिटी और अशोक राजपथ से लेकर हरमंदिर साहिब तक है। सरकारी व्यस्था भी पूरी तरह चाक चौबंद है और स्थानीय नागरिकों का सहयोग भी सराहनीय। 

मुझे इस पर्व ने एक कारण दिया है यहाँ सिक्ख पंथ पर बात करने का। सबसे पहली बात जो मेरे दिमाग में आती है वह इसका नाम है - सिक्ख यानि सीख। मैं इस सीख को सीखने के अर्थ में  लेता हूँ न कि सीख यानी उपदेश के  रूप में। यदि आपने पंजाबी लोगों के जीने के तरीके को गौर से देखा है तो आप को उनकी सक्रिय और उत्पादक जीवन शैली का दीदार हुआ ही होगा। भिखारियों की भीड़ मे ये ढूंढे से  भी नहीं मिलते। ये जीवन  से ही सीखते हैं। सीखने का  इनका उपक्रम इन्हें सिक्ख बनाता है। चूँकि यह सीखने का पथ है अतः मैं इसे धर्म न कहकर पंथ कहता हूँ। 

सीखने के लिए  सिक्खों ने पुस्तक चुना - गुरु ग्रन्थ साहिब। इस पावन पुस्तक से ऊपर कुछ भी नहीं। वास्तव में इनके गुरु का निवास इस ग्रन्थ  साहिब  में होता है। इस पवित्र ग्रन्थ की जो  बात मुझे सबसे अधिक आकर्षित करती है वह है विचारों की बहुलता और उनका बहुरंगीपन। आपको इसमें कबीर और दादू तो मिलेंगे ही गुरु नानक देव जी और गुरु गोविन्द सिंह जी भी मिलेंगे। वैचारिक सह जीवन के लिए अनिवार्य उदारता का इससे बेहतर उदाहरण शायद ही कहीं और मिले। 

दूसरी बात जिसका मैं कायल हूँ वह है संगत और पंगत। किसी व्यस्था के सुचारू सञ्चालन के लिए इस से सरल सहज और सुन्दर प्रावधानों की कल्पना ही नहीं हो सकती। धार्मिक सीमाओं के परे हमें संगत और पंगत को सामाजिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। हमारे आज के  समाजिक जीवन की अनेक विषमताओं और जटिलताओ का हल जीने की इन दो विधियों में है। 

शास्त्र ज्ञान उनको प्रभावशाली बनाते हैं जो सामर्थ्यवान हों अवांछित और अनुचित के दमन और शमन के लिए। इस सिद्धान्त का श्रेष्ठ अनुपालन सिखाया गुरु गोविन्द सिह जी ने। कविता और कृपाण का ऐसा मणि कांचन  योग विश्व इतिहास में अद्भुत है और इसी लिए अविस्मरणीय भी। शक्ति के  सामर्थ्य के संरक्षण में शास्त्रों की  उपादेयता लंबे समय तक मानव जीवन को उपलब्ध हो ऐसे आशीष की  हमें कामना है।

सामाजिक जीवन में भूल सुधार  का उपाय है विनम्रता के  साथ सार्वजानिक सेवा। दंड प्रणाली के अनुपालन की अद्वेशपूर्ण व्यस्था जो न तो हिंसा  पर आधारित है और न ही प्रति हिंसा पर। साथ ही दण्डित मनुष्य न तो समाज में उपहास या अपमान का पात्र होता है और न ही अनुपुयोगी।

और अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात सिमरन यानि स्मरण। सहज शब्दों में इसे अभ्यास कह सकते हैं। अपने जीवन व्यवहार में हम अपने अर्जित ज्ञान का जितना अधिक अभ्यास करते हैं ज्ञान की उपयोगिता और उसकी प्रखरता उतनी ही बढ़ती है। खिलाड़ियों के जीवन में इस बात का महत्व सामान्यतः महत्वपूर्ण स्थान पाता है जिसके चलते  वे न सिर्फ नए शिखर छूते हैं बल्कि नए शिखर गढ़ते भी हैं। बच्चों में हमें इन गुणों  को डालने की कामना होती है लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं स्मरण या अभ्यास छोड़ते जाते हैं। परिणाम जिंदगी की जटिलताएं और समाज में विषमताएं।

संगत , पंगत,सेवा,सिमरन, -शक्ति और सामर्थ्य के भुज दंड हो तो हर मनुष्य सिक्ख है और मानवता खालिस यानि खालसा अर्थात शुद्ध। 

सच यह प्रकाशोत्सव है। सबों के लिए। सत् सिरि अकाल। 

करुणेश 
पटना 
४। १। २०१७ 

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे न्यायधीश मरे न्यायालय लेकिन मौन । इतने सर हैं , इतने बाजू देखो लेकिन बोले, कितने - कौन ? सत्ता की कुंडी खड़काने आये जो दो -...