Friday, 8 September 2017

उद्वेग का आलेख

गौरी लंकेश को मरने से पहले मैं नहीं जानता था। राम रहीम प्रकरण से पहले मैं पत्रकार छत्रपति को भी नहीं जानता था। मरने से पहले मैं दैनिक हिंदुस्तान के पटना संस्करण के पत्रकार राजदेव रंजन को भी मैं नहीं जानता था। मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले के शिकार पत्रकारों और आर टी आई कार्यकार्यताओं को भी मैंने   मरने के बाद ही जाना। इतना ही नहीं कलबुर्गी , पनसारे और दाभोलकर को मैंने उनके मरने के बाद ही जाना। इस से मुझे कमतरी का अहसास तो होता है मगर अपराध बोध नहीं। उलटे इन जैसों के बारे में जानने की भूख और भी बढ़ गयी है। 

बहु प्रचारित नक्सलों की हत्या , माओवादियों की हत्या , राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समर्थित कार्यकर्ताओं की हत्या , विभिन्न राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं की हत्या के मृतकों को भी मैं नहीं जानता हूँ। इनके बारे में भी जानने की उत्सुकता होती है मेरे अंदर मगर सच यह है कि यह उत्सुकता वैसी नहीं होती जैसी पहले पैराग्राफ में नामित व्यक्तियों के बारे में होती हैं।

मेरे मन में एक सवाल उठता है। क्या मेरी मानवीयता खंडित हो जाती है। क्या मेरी संवेदनाएं पक्षधर हो जाती है। मुझे  ऐसा नहीं लगता। यदि उपरोक्त सभी मृतकों के कार्यों और उनके द्वारा अपनाये गए साधनों की शुचिता और वैधानिकता का तार्किक और निरपेक्ष मूल्यांकन करूँ तो स्वाभाविक निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि ऐसे लोगों की हत्या जो यथार्थ की तर्कपूर्ण अभिव्यक्ति के माध्यम भर हों समाज और राष्ट्र के लिए पीड़ादायी भी है और अमूल्य क्षति भी। हमें सत्य के उस कठोर पक्ष को सुनने , कहने और लिखने को ग्रहण करने की सहिष्णुता और उदारता अपने अंदर पैदा करनी होगी। साथ साथ असत्य के शोर और धारणाओं की अवैज्ञानिक तार्किकता के तकनिकी व्यामोह से भी बचना होगा। ऐसा सभी कर सकते हैं इसकी अपेक्षा दिवा  स्वप्न मात्र है और इसी लिए उनका बचे रहना और बोलते कहते लिखते रहना  भी ज्यादा जरूरी है जो आपको मात्र शब्दों के सहारे रौशनी के दीये जलाने का काम कर रहे हैं हमारे दिमागों में।

सत्य निष्ठां और विचार निष्ठा का अंतर समझना ज्यादा जरूरी है। विचार एक समय के बाद रूढ़ हो जाते हैं। सत्य अपने आप को बदलती परिस्थितियों और समय में विरोधाभासी विचारों में स्थापित कर लेता है। आप कृष्ण कथा पढ़ें या राम कथा , बुद्ध कथा पढ़ें या महावीर कथा एक ही बात स्थापित होती है सत्य समय सापेक्ष होता है और विचार व्यक्ति सापेक्ष। किसी भी तर्क से समय की महत्ता व्यक्ति से अधिक होती है इसलिए सत्य को प्रकट होने दें क्योंकि यह समय सिद्ध है। इसे रोकना समय को रोकना होगा जो किसी मनुष्य , सरकार , समाज या राष्ट्र के वश की बात नहीं।

और अंत में मेरी वर्तमान परिस्थितियों पर लिखी कविता

शुक्रिया मेरे कातिल 
सौ बार शुक्रिया 
मेरे सच के सबूत तुम 
सौ बार शुक्रिया। 

मेरी कब्र के अँधेरे 
इतने भी नहीं गहरे 
मेरे चारों तरफ है 
रौशनी के पहरे। 

अफ़सोस बस है इतना 
मारा क्यों गोलियों से ?
लफ्जों की मुफलिसी से ,
मुर्दों की टोलियों से ?

कुछ ऐसा तुम भी करते 
कुछ ऐसा तुम भी कहते 
न मैं रौशनी में मरती 
न तुम अंधेरों में रहते। 

सच की शिकायत सच में 
की हीं कहाँ थी तुमने 
तुमको गिला यही न 
कि पूछा नहीं था तुमसे। 

सच में मुझे बताना 
सच - सच ऐ मेरे कातिल 
क्या मारने से पहले 
तुम्हारे सच ने था ये पूछा 
कि गोलियां चलें क्या ?

करुणेश  
पटना
०८। ०४। २०१७

 

Monday, 4 September 2017

एक विचार

बचपन में हमें पढ़ाई नहीं अच्छी लगती है। जवानी में हमें विवेक और विनम्रता नहीं पसंद आती। अधेड़ उम्र में हमें ज्ञान नहीं भाता। और बुढ़ापे में हमें तकनीक नहीं पसंद आती। इन चार नापसंदगियों के साथ हमारा समाज बनता है अपवादों को छोड़कर। 

आइये ठीक इसका उल्टा सोचें। बचपन को खेल पसंद है। जवानी को उत्साह और तात्कालिकता। अधेड़ उम्र को धारणाएं पसंद आती हैं। और बुढ़ापे को इतिहास। 

आज के समाज को देखकर मुझे कभी कभी ऐसा लगता है जैसे एक समाज में चार अलग अलग समाज एक साथ रह रहे हैं विचार आचार और व्यव्हार के स्तर पर। समाज के इन चार रूपों में एक अन्तर्सम्बन्ध भी है और अंतर्द्वंद्व भी। लेकिन हम में से अधिकांश पसंदगी या नापसंदगी के इन्ही पड़ावों से गुजरते हुए अपनी अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हैं। 

क्या पसंदगी - नापसंदगी के क्रम को जीवन वय के विभिन्न चरणों में उलट पुलट कर कुछ बेहतर हासिल किया जा सकता है ? या यह मात्र एक कौतुक भरा विचार है। 

शायद इस पर सोचा जा सकता है।  

करुणेश 
पटना 
०४। ०९। २०१७ 

Friday, 1 September 2017

माई

(माई की कल यानि २ सितम्बर को पुण्य तिथि पर सादर )

पूज्य माई

सादर प्रणाम 

बाबूजी के चिट्ठी लिखले रहीं। ओकरा से तोरा सबके समाचार मिलिए गईल होई। वैसे सबके हाल ठीक बा। अउर चाल त तू सबके जानते बाड़ू त हम का लिखीं।

तोरा गइला से दू गो बात के तकलीफ हो गईल। अइसन हमरा लागेला। अउर लोग के नइखी जानत। ए गो जीभ के स्वाद आ दूसर बतकूचन। बाबूजी त सुनते ना रहन। आ जादे कह द त अल्लड़ - बल्लड़ कह देत रहन ओकरा के। 

ई बात नइखे कि अब खाना में स्वाद न मिले लेकिन बने से पाहिले एके तकारी के कतना तरीका से बनावल जा सकेला एकर कहानी कहे वाला अब कोई नइखे आ ना कोई के मन लागे ई सब कहे सुने में। मीट मछरी बनावे के तौर तरीका आउर ओकर किस्सा कहानी त तोरे साथे गुजर गईल। 

जउन  दोसर बात जेकर कमी हमरा खलेला उ बा गलत कहे आ करे के आजादी। अब त भाइयो बहिन में कुछ गलत कह सुन देता त रिश्ते ख़तम हो जाये के डर लागल रहेला। भौजाई आ बहनोई के बात का कहीं। तू रहिस त तोरा से कुछो कह सकत रहे आदमी। गलती करे के भी हिम्मत रहे आ गलती कहे के भी। जानते रहे आदमी कि कुछो क के तू सब संभार लेबे। और संभार लेते रहे तू। खाली हमरे खाती न कोई खाती। तोरा खातिर गलती सही से जादे जरूरी रहे सबके एके साथे रखल। तबे त आज तक निभता कम बेस कर के। आ आगे भी निभिये जाइ। 

ले हम त बाते फिंचे लगनी। जाए दे। तोरे से न कह तानी। आउर सब ठीके बा। 

जइसे बाबूजी भर जिंदगी गोदना गोदत (लिखत - पढ़त ) रह लन उही लच्छन हमरो ह। तू ही न कहत रहे - दर्ज़ी के बेटा जब तक जीवे तब तक सीवे।   

बाकी तोर आशीष। 

तोहार 
" कपिल मुनि "

करुणेश 
पटना 
०१। ०९ २०१७ 

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे न्यायधीश मरे न्यायालय लेकिन मौन । इतने सर हैं , इतने बाजू देखो लेकिन बोले, कितने - कौन ? सत्ता की कुंडी खड़काने आये जो दो -...