Monday, 17 April 2017

किसकी जीत किसकी हार

आज की दुनिया में कौन जीत रहा है या किस की हार हो रही है। दो चार दस कदम के बाद सब तो हार ही जा रहे हैं। मैं कोई नकारात्मक छवि नहीं रख रहा हूँ। शान्ति बम गिराने से भी नहीं मिल रही है और आतंक फ़ैलाने से भी नहीं। मिल बैठकर बात करने की रस्म एक अंतहीन सिलसिला बन गया है। साम्यवाद , समाजवाद या पूंजीवाद या अलग अलग अंशों में मिश्रित इनका घालमेल कुछ भी तो इस दुनिया के लिए ठीक ठाक काम नहीं कर रहा। हम चाहे अनचाहे बेचैन वैश्विकता के जबरिया नागरिक बन गए हैं या बना दिए गए हैं। मुझे ऐसा लगता है जैसे बेचैनी जीत रही है और नागरिक हार रहे हैं। 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया , शीत युद्ध के बाद की दुनिया , सोवियत रिपब्लिक के विघटन के बाद की दुनिया,नेल्सन मंडेला के बाद की दुनिया या फीदेल कास्त्रो के बाद की दुनिया आखिर क्या बदला है एक सामान्य नागरिक के लिए चाहे वह किसी भी देश का क्यों न हो। नागरिकों की स्थानीयता और इसके प्रति उनका भाव बोध किसी भी राष्ट्र के लिए नीति निर्देशक के रूप में काम कर रहा है क्या , यह सवाल अलग - अलग रूपों में अलग - अलग जगहों पर बार बार सर उठा कर खड़ा होता रहा है। चाहे इराक हो ,सीरिया हो,अफ़ग़ानिस्तान हो , कश्मीर - मणिपुर - नागालैंड हो , बलूचिस्तान हो , तिब्बत हो. उत्तर कोरिया हो या फिर छोटे - छोटे अफ्रीकन महाद्वीपीय राष्ट्र हो।  

किसी नागरिक के लिए राष्ट्र कितना महत्वपूर्ण होता है। क्या राष्ट्र बोध (मैं इसे राष्ट भक्ति से अलग मानता हूँ) व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधक होता है या हो सकता है। क्या स्थानीयता का भाव बोध राष्ट्रीयता के भाव बोध का विपर्यय (Contrary) है।हाँ , नागरिकों का  राजनैतिक , भौगोलिक  और आर्थिक विस्थापन राष्ट्रीयता की भावनाओं के ह्रास और विखंडन के कारण अवश्य हो सकते हैं। अब चूँकि दुनिया तकनिकी रूप से अत्यधिक समृद्ध हो चुकी है विशेषकर सूचना और संवाद के क्षेत्र में तो वैश्विकता अब उतना बड़ा शब्द नहीं रहा जितना आज से चार या पांच दशक पहले हुआ करता था लेकिन ऐसा लगता है जैसे स्थानीयता पूरे तरीके से महत्वहीन बन गयी है और इसी लिए नागरिक भी। ऐसे महत्वहीन वैश्विक नागरिकों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। 

आईये इसी सन्दर्भ में वर्तमान वैश्विक नेतृत्व और भिन्न देशों की करनी - धरनी  का भी विहंगम अवलोकन कर लें। उत्तर कोरिया का उच्छृंखल एवं निरंकुश व्यवहार , अमेरिका की दबंगई , पाकिस्तान का दोगलापन , चीन की साम्राज्यवादी सोच और व्यवहार , अवसर की तलाश में घात लगाने को सन्नद्ध रूस , अफगानिस्तान , सीरिया , इराक और ऐसे ही न जाने कितने भू खंड जिन्हे राष्ट्र के रूप में सम्बोधन प्राप्त है में खौलता उबलता या रोता - सिसकता जन जीवन , समंदर में सीमाओं के दावे प्रतिदावे , पर्यावरण के शोधन एवं संरक्षण के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश या दोहन , यू एन ओ की अप्रभावी सक्रियता , ये सारी बाते किसी नागरिक को ध्यान में रख कर नहीं की जा रहीं हैं। यह सारा तो किसी भू खंड विशेष को समृद्ध से समृद्धतर बनाने के प्रयास भर हैं और वह भी मात्र सत्ता तंत्र के पोषण और दीर्घजीविता के लिए। 

ऐसी वैश्विक परिस्थिति में भारत में राष्ट्र भक्ति का उभार एक बेहद खतरनाक संकेत है। भारत के अस्तित्व के लिए भी और इसकी अस्मिता के लिए भी। भारत को अंधे राष्ट्रों के हाथ में दीपक देने की कोशिश नहीं करनी चाहिए वरना आग चाहे जहां लगे कम से कम उसकी आंच से हम भी झुलसेंगे। याद रखिये जल कर मर जाना उतना पीड़ा दायी नहीं होता जितना झुलस कर जिन्दा रहना।

करुणेश
पटना
१७। ०४। २०१७


Wednesday, 12 April 2017

चंपारण

साल १९१७। देश भारत। राज्य बिहार। जिला चंपारण। नील की खेती। तीनकठिया कानून। अंग्रेजी शासन। विधि की व्यस्था। विधि आधारित न्याय प्रणाली। किसानों की दुर्दशा। राज कुमार शुक्ल का बुलहटा। गाँधी का आगमन। विधि की व्याख्या। विधि की वैधता को चुनौती। तत्कालीन शासकीय एवं न्याय व्यस्था का सम्मान। किन्तु विचारों की दृढ़ता एवं अडिगता। स्थानीयता के साथ सहभागिता। अवरोध हीन  विरोध का कर्म। 

यही रहा होगा आज से सौ साल पहले जिसे आज हम चंपारण सत्याग्रह के नाम से जानते हैं। 

साल २०१७। देश भारत। राज्य कोई भी। जिला कोई भी। कैसी भी खेती। खेती - किसानी से सम्बंधित सारे कानून। संविधान का संप्रभु शासन। विधि की व्यवस्था। विधि आधारित न्याय प्रणाली। किसानों की आत्महत्या। आर टी आई एवं समाजिक कार्यकर्ताओं की कुलबुलाहट। ------------------- ?  धरना , प्रदर्शन। कर्ज माफी। सस्ते दर पर ऋंण की सुविधा के वादे। फिर कर्ज माफ़ी। स्थानीयता के साथ  सहभागिता का दिखावटी निभाव।  विधि एवं व्यस्था की अधकचरी समझ। विचारों की उग्रता। शाब्दिक उद्दंडता। दम्भी प्रतिरोध। 

फेसबुक , ट्विटर , व्हाट्सप्प , ब्लॉग पर सक्रिय हम जैसे लोग फैलते और बढ़ते चम्पारण (१९१७ वाला) के बस मूक साक्षी बनने को अभिशप्त हैं क्योंकि हमें गांधी का इंतजार है। बुलहटा भेज दिया है हम लोगों ने। देखें कब तक आते हैं गांधी हमारे पास , हमारे भीतर। 

करुणेश 
पटना 
१२। ०४। २०१७              

Tuesday, 11 April 2017

नए जवाहर

नए जवाहर आये हैं 
सबके सपनों में छाये हैं। 

छोटे - छोटे कई जवाहर 
उन से भी हैं बड़े जवाहर 
अख़बारों के पन्नों पर 
बिखरे सारे ढेर जवाहर। 

टी वी इनका 
एंकर इनके 
रूपया इनका 
सिक्के इनके 
बातें इनकी 
करनी इनकी 
ये ही केवल ,
भारत के सरमाये हैं। 
नए जवाहर आये हैं। 

डिजिटल दुनिया 
इनका कहती 
इनका सुनती 
बड़े सुहाने सपने बुनती 
सपनों में जो छेद  दिखाते 
उन पर ये हैं शोर मचाते 
चिल्ला - चिल्ली , हल्ला - गुल्ला 
गाली बकते भर भर कुल्ला 
राष्ट्रवाद में ये ही केवल ,
सारे तपे - तपाये हैं। 
नए जवाहर आये हैं। 

बात - बात में देश का रोना 
साफ़ करेंगे कोना - कोना 
पूछ रहे हैं रोज - रोज ये 
तुम तो मेरे साथ ही हो न ?
ऐसे हैं ये नए जवाहर 
अब क्या करना राम मनोहर ?

बाते करते रहे अभी तक 
गाँव गली और खेतों की 
मजदूरों और दलितों की 
पानी बानी और जवानी 
खो कर रह गए राम मनोहर। 
सोचो कैसे संसद में तुम 
आ पाओगे राम मनोहर। 

ऐसे हैं ये नए जवाहर 
कैसे हैं ये नए जवाहर। 

करुणेश 
(रचना तिथि - ०२। ०४। २०१७ )
पटना 
११। ०४। २०१७ 

आज की कविता ; आज के लिए

न्याय मरे न्यायधीश मरे न्यायालय लेकिन मौन । इतने सर हैं , इतने बाजू देखो लेकिन बोले, कितने - कौन ? सत्ता की कुंडी खड़काने आये जो दो -...