आज की दुनिया में कौन जीत रहा है या किस की हार हो रही है। दो चार दस कदम के बाद सब तो हार ही जा रहे हैं। मैं कोई नकारात्मक छवि नहीं रख रहा हूँ। शान्ति बम गिराने से भी नहीं मिल रही है और आतंक फ़ैलाने से भी नहीं। मिल बैठकर बात करने की रस्म एक अंतहीन सिलसिला बन गया है। साम्यवाद , समाजवाद या पूंजीवाद या अलग अलग अंशों में मिश्रित इनका घालमेल कुछ भी तो इस दुनिया के लिए ठीक ठाक काम नहीं कर रहा। हम चाहे अनचाहे बेचैन वैश्विकता के जबरिया नागरिक बन गए हैं या बना दिए गए हैं। मुझे ऐसा लगता है जैसे बेचैनी जीत रही है और नागरिक हार रहे हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया , शीत युद्ध के बाद की दुनिया , सोवियत रिपब्लिक के विघटन के बाद की दुनिया,नेल्सन मंडेला के बाद की दुनिया या फीदेल कास्त्रो के बाद की दुनिया आखिर क्या बदला है एक सामान्य नागरिक के लिए चाहे वह किसी भी देश का क्यों न हो। नागरिकों की स्थानीयता और इसके प्रति उनका भाव बोध किसी भी राष्ट्र के लिए नीति निर्देशक के रूप में काम कर रहा है क्या , यह सवाल अलग - अलग रूपों में अलग - अलग जगहों पर बार बार सर उठा कर खड़ा होता रहा है। चाहे इराक हो ,सीरिया हो,अफ़ग़ानिस्तान हो , कश्मीर - मणिपुर - नागालैंड हो , बलूचिस्तान हो , तिब्बत हो. उत्तर कोरिया हो या फिर छोटे - छोटे अफ्रीकन महाद्वीपीय राष्ट्र हो।
किसी नागरिक के लिए राष्ट्र कितना महत्वपूर्ण होता है। क्या राष्ट्र बोध (मैं इसे राष्ट भक्ति से अलग मानता हूँ) व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधक होता है या हो सकता है। क्या स्थानीयता का भाव बोध राष्ट्रीयता के भाव बोध का विपर्यय (Contrary) है।हाँ , नागरिकों का राजनैतिक , भौगोलिक और आर्थिक विस्थापन राष्ट्रीयता की भावनाओं के ह्रास और विखंडन के कारण अवश्य हो सकते हैं। अब चूँकि दुनिया तकनिकी रूप से अत्यधिक समृद्ध हो चुकी है विशेषकर सूचना और संवाद के क्षेत्र में तो वैश्विकता अब उतना बड़ा शब्द नहीं रहा जितना आज से चार या पांच दशक पहले हुआ करता था लेकिन ऐसा लगता है जैसे स्थानीयता पूरे तरीके से महत्वहीन बन गयी है और इसी लिए नागरिक भी। ऐसे महत्वहीन वैश्विक नागरिकों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है।
आईये इसी सन्दर्भ में वर्तमान वैश्विक नेतृत्व और भिन्न देशों की करनी - धरनी का भी विहंगम अवलोकन कर लें। उत्तर कोरिया का उच्छृंखल एवं निरंकुश व्यवहार , अमेरिका की दबंगई , पाकिस्तान का दोगलापन , चीन की साम्राज्यवादी सोच और व्यवहार , अवसर की तलाश में घात लगाने को सन्नद्ध रूस , अफगानिस्तान , सीरिया , इराक और ऐसे ही न जाने कितने भू खंड जिन्हे राष्ट्र के रूप में सम्बोधन प्राप्त है में खौलता उबलता या रोता - सिसकता जन जीवन , समंदर में सीमाओं के दावे प्रतिदावे , पर्यावरण के शोधन एवं संरक्षण के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश या दोहन , यू एन ओ की अप्रभावी सक्रियता , ये सारी बाते किसी नागरिक को ध्यान में रख कर नहीं की जा रहीं हैं। यह सारा तो किसी भू खंड विशेष को समृद्ध से समृद्धतर बनाने के प्रयास भर हैं और वह भी मात्र सत्ता तंत्र के पोषण और दीर्घजीविता के लिए।
करुणेश
पटना
१७। ०४। २०१७