जमाना आजकल कॉम्पिटिटिव हो गया है। कॉम्पिटिटिव यानि स्पर्धात्मक। कम्पटीशन बहुत बढ़ गया है। ऐसी बातें हम रोज ही बोलते - सुनते हैं। विशेषकर अपनी अनुगामी पीढ़ी को। मुझे ऐसा लगता है कि स्पर्धा उतनी नहीं बढ़ी जितनी तुलना। हम लोग स्पर्धात्मक से अधिक तुलनात्मक हो गए हैं।
स्पर्धा है क्या पहले इसे स्पष्ट करना मैं जरूरी समझता हूँ। जहाँ तक मेरी समझ है स्पर्धा वह भावना है जो हमें अपने लक्ष्यों को पाने की चुनौती देती है। यह किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह और उसकी क्रियाओं को लक्ष्य केंद्रित करने का चुनौती पूर्ण भाव पैदा करती है। चुनौती ही स्पर्धा का भाव पैदा करती है और इसीलिए चुनौती ही स्पर्धा का कारक भी। स्पर्धा मानवीय सीमाओं और संभावनाओं का विस्तार करती है चुनौतियों के माध्यम से।चुनौतियाँ मनुष्य के सामने समस्यायों के रूप में होती है और लक्ष्य समाधान बन कर आता है। समाधानों की भी सीमाएं होती है और फिर इन्ही सीमाओं के विस्तार की चुनौती मनुष्य और उसके समाज को लगातार मिलती है जो स्पर्धा को जन्म देती है। शायद यही कारण है कि स्पर्धा खेल की समानार्थी बन जाती है। स्पर्धा सदैव मनुष्यों या मानव समूहों यथा समाज, राष्ट्र, दल के बीच हो सकती है , वस्तुओं या स्थितियों के बीच नहीं।
तुलना तौलने शब्द से बनता है जिससे किसी वस्तु का परिमाण या मात्रा ज्ञात की जाती है। तुलने की क्रिया में चार चीजों का होना अनिवार्य है। एक तुला दूसरा तौलने वाला तीसरी वह वस्तु जिसे तौला जाना है और चौथा वह समरूपता जससे तुल्य वस्तु तौली जा सके। स्पर्धा से अलग तुलना व्यक्ति वस्तु और स्थिति किसी के बीच की जा सकती है। सामानयतः तुलना का उद्देश्य एक की खामी के सामने दूसरे की खूबी उजागर करना होता है यद्यपि ऐसा करना उद्देश्य न भी हो मगर तुलना की क्रिया में ही यह अंतर्निहित होता है। तुलना अतीत और वर्तमान के बारे में भी की जाती है और वर्तमान के उपमानों के बीच भी। तुलना का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि कभी - कभी यह भविष्य का संकेत करती है। मगर अधिकतर तुलनाएं बौद्धिक मनोरंजन मात्र ही होती हैं विशेषकर तब जब वह अतीत और वर्तमान की आधारभूमि पर की जातीं हैं विशेष रूप से व्यक्तियों और स्थितियों के संदर्भ में। सामान्यतः तुलना के निष्कर्ष तुलना करने वाले के पहले से सोचे हुए परिणामो की तार्किक व्याख्या मात्र होती है। वस्तुओं के बीच की जाने वाली तुलना उनकी उपयोगिता एवं धारक के आर्थिक स्तर के उद्घोष के लिए होती हैं ।
अपने दैनिक सामाजिक जीवन मे मेरा स्वयं का यह अनुभव है कि हम बात तो करते हैं स्पर्धा यानि कम्पटीशन की लेकिन जैसे ही हम अपनी बातों को विस्तार देते हैं हम जाने अनजाने तुलना करने लगते हैं। चूंकि वास्तव में तुलना करना ही हमारा उद्देश्य होता है अतः इस क्रिया का स्वाभाविक अंतर्निहित गुण प्रदर्शित होने लगता है यानि किसी एक के पक्ष या विपक्ष में होना। अनेकानेक अवसरों पर मैंने यह पाया है कि यह निंदा का रूप ले लेती है और दूसरे पक्ष में ईर्ष्या का भाव पैदा करती है या इसका उल्टा। शायद यह कहने की आवश्यकता नहीं कि संघर्ष की भूमि का निर्माण हम रोज ब रोज करते हैं इस प्रक्रिया से गुजरते हुए लेकिन इसे स्वीकार नहीं करते हैं।समाजिक समरसता का भाव इस से बहुत तेजी से टूटता है।
स्पर्धा मनुष्य को मनुष्येतर बेशक न बनाये इसे बेहतर तो अवश्य ही बनाती है। स्पर्धाएं निश्चित रूप से प्रयासों का महत्व स्थापित करती हैं जबकि तुलनाएं सफलताओं और असफलताओं का एक साथ प्रतिपादन मात्र करती हैं।
बौद्धिक विमर्शों और विवेचनाओं की आधारभूमि के लिए तुलनाएं आवश्यक हैं और कई बार तो ऐसी तुलनाएं मानव समूहों में स्पर्धा का भाव जगाने में उत्प्रेरक का काम करती हैं लेकिन क्या इसकी ओट लेकर खंडन , मंडन और मर्दन करने के लिए तुलना करने की उग्र व्यग्रता और अपने जीवन व्यवहार में तुलना करने की अतिरेकी अधिकता अनिवार्य है।लोकतंत्र के चौथे खम्भे के तौर पर मीडिया चाहे वह प्रिंट हो , टी वी हो , वेब पोर्टल हों या सोशल मीडिया हर जगह तुलनाओं के आधार पर धारणाओं को स्थापित करने का आक्रामक प्रयास होता दिख रहा है। आश्चर्य और दुःख इस बात का है कि तथाकथित बौद्धिक समाज ही इसका नियंता , उपयोगकर्ता और भोक्ता तीनों बन बैठा है।
शायद समाज आज बहुत बेचैन (Restless) है। बाजार द्वारा प्रतिपादित 'न्यूनतम में अधिकतम' के सिद्धांत ने प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया है। अधिक रौशनी के लिए घर के दिए से दूसरों के घर जलाने की मनोवृति हमें अधिक से अधिक तुलनात्मक होने के लिए बेचैन करती है। तुलनाओं के इस बियाबान में हम खो से गए हैं अँधेरे और अकेलेपन के सहयात्री बन कर।
सोच कर देखिये।बस इस लेख की तुलना मत कीजियेगा किसी को कमतर साबित करने के लिए।
करुणेश
पटना
१८। ११। २०१७
Appreciated but envy is panacea.
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