मन पिछले कुछ दिनों से भटक ज्यादा रहा है और अटक कम रहा है। जब तक यह अटके नहीं किसी विचार पर या घटना पर लिखना संभव नहीं हो पाता है। कुछ मायने में आज मैं मन को अटकाने की कोशिश कर रहा हूँ ताकि लिख सकूं कुछ सार्थक , कुछ वैसा जिसे लिख कर मेरे मन का भटकाव कुछ कम हो।
राजनीति , समाज और अन्य बहु चर्चित मुद्दों पर लिखने का मन नहीं है। कारण सिर्फ एक। इन मुद्दों पर जो भी लिखा कहा जाय वह तथ्यों और तर्कों का दुहराव भर होता है। हाँ प्रस्तुतिकरण का तरीका जरूर इन मुद्दों को रोचक बना देता है।लेकिन बगैर राजनीति और समाज के आयामों के उल्लेख के प्रासंगिक और तर्कपूर्ण कुछ कहना भी तो कठिन।
कभी कभी मुझे लगता है मैं दुखी हूँ , कुछ हद तक आक्रोशित भी। अक्सर मुझे वर्तमान परिदृश्य नैराश्य से भर देता है। किन्तु अति निराशा ही आशा की आधारभूमि भी होती है। इसलिए बात की शुरुआत करते हैं योगेंद्र यादव के किसान आंदोलन से और दिल्ली के मोहल्ला क्लिनिक एवं सरकारी विद्यालयी व्यवस्था से।ये दोनों मुझे आशा दीप से लगते हैं , मगर कब तक जलेंगे और इनकी रौशनी कितना विस्तार पायेगी यह भविष्य के गर्भ में है।
अब इसी आशा दीप के साथ अपनी बात रखता हूँ। हमारे घर में जब एक शिशु का जन्म होता है तो पूरे परिवार को बस एक ही चिंता होती है। शिशु के स्वस्थ्य की। माँ के लिए तो इस से बड़ा कोई प्रश्न ही नहीं होता। शिक्षित अशिक्षित के भेद के बगैर एक शिशु को स्वस्थ जीवन देने का महत्व सबको ज्ञात है। सबको यह पता होता है कि किसी भी शिशु का भविष्य शिशु के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। इतना ही नहीं प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक उपादेयता मूलतः उसके बचपन के स्वास्थ्य पर काफी हद तक निर्भर करती है। इस दिशा में में आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार द्वारा संचालित मोहल्ला क्लिनिक एक सार्थक एवं दूरगामी प्रभाव देने वाला कदम है। यद्यपि यह कुपोषण की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। किन्तु एक मौलिक और बहु उपयोगी प्रयास तो है ही।
कुपोषण का सम्बन्ध आर्थिक रूप से विपन्न सामाजिक वर्ग से है जिसमे से अधिकांश देश का ग्रामीण कृषक है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि उत्पादन या कृषि व्यवसाय से जुड़ा है। शहरों में रहने वाला विपन्न सामाजिक वर्ग भी इन्ही वर्ग समूहों के लिए पूरक आर्थिक संसाधन के निर्माण में कार्यरत होता है यद्यपि अन्य क्षेत्रों में जो कृषि से किसी भी तरीके नहीं जुड़े होते हैं। तो दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार का मोहल्ला क्लिनिक और योगेंद्र यादव का किसान आंदोलन मुझे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु लगते हैं। काश मोहल्ला क्लिनिक भारत के सारे टोलों - मोहल्लों तक पहुँच जाए और किसान आंदोलन अपनी तार्किक परिणति को प्राप्त कर ले तो भारत को शायद वर्ल्ड बैंक , आई एम् ऍफ़ और विभिन्न वैश्विक रेटिंग एजेंसियों के अनुमोदन की आवश्यकता समाप्त हो जाए कम से कम नागरिकों की अनिवर्य जीवन जरूरतों के सन्दर्भ में । इस का एक बाई प्रोडक्ट होगा पर्यावरणीय संतुलन जो वैश्विक समस्या बन चुकी है। हो सकता है मेरी सोच अति सरलीकृत हो और इसे कार्य रूप देना संश्लिष्ट लेकिन भारतीय राजनीति को इसे एक चुनौती के रूप स्वीकार करना ही होगा। यहाँ तक कहूंगा कि भारत के भविष्य की यह एक अनिवार्य और पहली शर्त है , दूसरी तीसरी और चौथी या अन्य चाहे और कुछ।
आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने एक पहल और की है सरकारी विद्यालयों के स्तर को सुधारने के लिए। विद्यालयी शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण सुधार के बगैर उच्च शिक्षा में चमत्कार की अपेक्षा रखना मूर्खतापूर्ण दिवा स्वप्न मात्र है। किसी सरकार को इसकी सुध तो आई। वरना विद्यालयी शिक्षा में सुधार का मतलब तो राज्य सरकारों की लूट खसोटी योजनाएं ही रही हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि दक्षिण भारतीय राज्य विद्यालयी शिक्षा की गुणवत्ता के मामले में उत्तर भारत के राज्यों से कोसों आगे हैं। इसका कारण भी है। याद करें साठ का दशक जब कामराज ने तमिलनाडु में विद्यालयी शिक्षा और उसकी जीवन में उपयोगिता के महत्व को ध्यान में रखते हुए मिड डे मील जैसी योजना प्रारम्भ की थी। एक बात और विद्यालयी शिक्षा की संरचना तब तक ठोस रूप नहीं लेगी जब तक उसमे स्थानीय जन भागीदारी न हो। मैं अपने बचपन में अपने शिक्षक से इसलिए भी डरता था कि मेरे शिक्षक मेरे पिता को जानते थे और वे मेरी विफलताएं उन्हें बताते थे। आज के पैरेंट टीचर मीटिंग के ठीक उलट कभी भी मेरे पिता मेरे शिक्षक से मेरे बारे में पूछ सकते थे और वे मेरे बारे में मेरे पिता को बता सकते थे। इतना ही नहीं अपनी अकादमिक समस्याओं के समाधान के लिए मैं कभी भी अपने शिक्षक की सहायता प्राप्त कर सकता था। और ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही कोई अपवाद स्वरुप नहीं था। स्थानीयता के प्रति शिक्षकों की ये जिम्मेदारी होती थी। मुचकुन्द दुबे की कॉमन स्कूल सिस्टम वाली रिपोर्ट में भी इस बात की ओर इशारा किया गया है। सच कहें तो बगैर स्थानीय भागीदारी के विद्यालयी शिक्षा ठोस धरातल नहीं पा सकती है और बगैर विद्यालयी शिक्षा के उच्च और उच्चतर शिक्षा की बात पूरी तरह बेमानी। शोध और अनुसंधान आदि की बातें आज तो दूर की कौड़ी ही हैं।
वर्तमान राजनीति हर काम वैश्विक स्तर का करना चाहती है या फिर सबसे श्रेष्ठ और सबसे अच्छा। यह वो नहीं करना चाहती जिसे आज के भारत को सर्वाधिक आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य , कृषि और किसान ये सारी बातें इन्हे हाशिये का किस्सा (Foot Note) सी लगती हैं। आखिर बड़े साहब लोग जो ठहरे आवेदन कुछ भी हो समाधान तो हाशिये पर ही जगह पाता है। भारतीय राजनीति यह समझ ले कि चुनाव जीत कर " हड़बड़ी के बियाह आ कनपटी पर सेनुर " वाली कहावत जनता अधिक दिन नहीं झेल सकती।
करुणेश
०२। ११। २०१७
पटना