यह देश बेशर्म नागरिकों का देश है। ऐसा कहने में मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा। और हो भी क्यों ?
जिस देश में साठ से अधिक शिशु वहां मरते हैं जहाँ उन्हें जिंदगी देने की व्यवस्था की गयी है। पूरी राज्य व्यवस्था मौतों पर मात्र फूहड़ नौटंकी करती है चंद घंटों के लिए नहीं बल्कि दिनों तक। स्वाधीनता दिवस के अवसर पर राष्ट्र को सम्बोधित करता प्रधानमंत्री एक लफ्ज भी शिशुओं की मौत पर नहीं बोलता। और हम भारतीय जय - जय में लगे हैं। किसी को यह नहीं सूझा कि झंडोतोलन और राष्ट्रगीत के बाद दो मिनट का मौन ही रख ले उन शिशुओं की मौतों पर। आंसू बहाने का जिम्मा उन शिशुओं के माँ बाप तो उठाएंगे ही। हम भारत के लोग भला ऐसा क्यों करें ? हमें शर्म नहीं आती।
सप्ताह दस दिनों के अंदर दो रेल दुर्घटनाएं होती हैं। शायद हम सोचते हैं ऐसा तो होता ही रहता है। फ़िल्मी भाषा में कहें तो " बड़े बड़े देशों में छोटी छोटी बाते होती ही रहती हैं। क्या फर्क पड़ता है। और शर्मिंदा होना वह भी ऐसी छोटी बात के लिए भला समझदारी है क्या ? प्रभु जी ने तो त्याग पत्र सौप ही दिया है। महाप्रभु की स्वीकृति का इंतजार है। और क्या कर सकते हैं बेचारे। हम क्यों शर्मिंदा हों हमारी थोड़े ही गलती है। एक दम सही। होना भी नहीं चाहिए। होना भी यही चाहिए। हमने त्यागपत्र को शर्म पत्र मान लिया है।
एक सांस में तीन तलाक को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया। यह हिंदुत्व की जीत है। यह सरकार की जीत है। यह संघ की जीत है। इसके बाद भी जीत की मात्रा बची हो तो उन महिलाओं के दे दें जिन्होंने यह संघर्ष किया। लेकिन क्या मात्र जीत की भावनाओं के साथ जीवन जिया जा सकता है। हमें क्या ? हमने तो इस फैसले के पक्ष में सोशल मीडिया पर लाइक , ट्वीट और रीट्वीट कर ही दिया है। २०१९ के प्रजातान्त्रिक महापर्व में स्थान और समय के अनुरूप इसका कौशल के साथ उपयोग राजनीति कर ही लेगी। और हम इस या उस खेमे में होंगे अपना वोट देते हुए। एक नागरिक का वोट राजनितिक दलों की करनी का समर्थन नहीं होता। फिर भी ऐसा ही होगा। हमने आर्ष वचनों , परम्पराओं और प्रतीकों को अतार्किकता की हद तक बचाये रखने , निभाने और आगे बढ़ाने का संकल्प जो उठा रखा है। चाहे ऐसा करने में संविधान की धज्जियाँ क्यों न हो जाए। कितने भारतीयों को यह पता है कि भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक से वैज्ञानिक सोच को अपनाने और प्रचार - प्रसार करने की अपेक्षा रखता है। लेकिन संविधान की उपेक्षा शर्मिंदा होने का कोई कारण तो नहीं।
बलात्कार , हत्या और यौन हिंसा के दोषी को बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह कहा जाता है। कोई उसे बलात्कारी और हत्यारा कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। पूरी मीडिया बिरादरी पत्रकार स्वर्गीय छत्रपति के गुण गान करते नहीं थक रही लेकिन वैसा होने का साहस इक्का दुक्का ही कर पाते हैं। राजनीति ने मौन धारण कर रखा है। एक शहर जला। न्यायलय चीखती चिल्लाती रही। व्यवस्था का शिखंडी स्वभाव दर्शनीय रहा। अगली सुबह पचकुला के शहरवासी मॉर्निंग वाक पर भी निकले। शमसान में अर्ध रात्रि का सन्नाटा भी इतना भयावह शायद ही हो। पर सबने सोचा चलो अभी के लिए बला टली। अब २८ अगस्त को देखते हैं क्या होता है। हम मान चुके हैं कि ऐसा ही होगा। सामूहिक बेशर्मी का ऐस उदाहरण भला कहाँ मिलेगा।
भारतीय राजनीति का प्रतिपक्ष साझी विरासत बचाने की बात कर रहा है। और वह भी ऊंघते हुए अनमने ढंग से। क्या गलत है इसमें। ऊंघते अनमने नागरिकों वाले भारत को चाहिए भी यही। एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले देश को शायद सब कुछ मिल जाए पर मिलेगा शर्म खोकर ही।
इसलिए भारतीयों को शर्म नहीं आती। जरूर दो चार लाख लोग इस श्रेणी में नहीं आते लेकिन बेशर्मी के इस महासागर में दो चार लाख मीठी बूंदें क्या कर लेंगी सिवाय कुछ लोगों में उत्साह भरने और बाकियों में आशा जगाने के।
करुणेश
पटना
२६। ०८। २०१७